मन का स्वरूप ही व्यक्तित्व कहलाता है। कामना-संसार से इन्द्रिय मन, संकल्प-संदेह-भय आदि से सर्वेन्द्रिय मन, लज्जा-धृति-धी आदि से महन्मन तथा श्रद्धा आदि से श्वोवसीयस मन का स्वरूप एक ही व्यक्तित्व में दिखाई पड़ता है। ये सारे गुण यूं तो मनोविज्ञान के विषय हैं, किन्तु साधारण बुद्धि से एक ही धरातल पर दिखाई पड़ते हैं।
शरीर का नियमन-नियंत्रण प्रकृति एवं माया करती है। चांद-सूरज का प्रभाव तथा हवा-पानी का प्रभाव शरीर पर होता ही रहता है। इसी प्रकार सत-रज-तम रूप प्रकृति इस व्यवहार को चलाती है। हमारे जीवन का पूर्व निर्धारित भाग भी माया के द्वारा ही संचालित होता है। जन्म से मृत्यु तक। आत्मा कुछ नहीं करता। मन-प्राण वाक् ही आत्मा हैं। मन, भावनाओं और संवेदनाओं का केन्द्र है। इच्छा अथवा कामना का उत्पत्ति स्थान है। इन्द्रियों के माध्यम से मन जगत-व्यवहार करता है। दूसरी ओर यह आत्मिक धरातल से जुड़ा है। जब इन्द्रियों से जुड़ता है तब इसकी गति बाहर की ओर होती है। मन में आसक्ति पैदा होती है। भीतर का क्षेत्र विज्ञानभाव या प्रज्ञा से जुड़ा रहता है। लगता है, जैसे व्यक्ति के पांच नहीं छह इन्द्रियां हैं। मन रूपी इस छठी इन्द्रिय का उपयोग ही मानव को सृष्टि के अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ प्रमाणित करता है।
मन-प्राण-वाक् ही इच्छा, क्रिया और कर्म कहलाते हैं। चूंकि मन हर इच्छा के साथ नया पैदा होता है, अत: इसको अपूर्व कहा जाता है। मन और प्राण दोनों असंग हैं-साक्षात् रस यानी ब्रह्म स्वरूप हैं। मन व प्राण से ही वाक् उत्पन्न होती है। मन की स्थूलावस्था का नाम प्राण है, प्राण की स्थूलावस्था का नाम वाक् है। इनमें मन और वाक् स्थिर रहते हैं। प्राणों की गति के कारण मन गतिमान् जान पड़ता है।
वाक् ही मन की अभिव्यक्ति का माध्यम है। जैमिनीय ब्राह्मण में कहा है कि जिस प्रकार वत्स के पीछे गौ भागती है, वैसे ही मन के पीछे वाक्-वाणी-चलती है। मन-प्राण-वाक् सदैव एक साथ रहते हैं। इच्छा ही प्राणों के द्वारा वाक् में बदल जाती है। जैमिनीय ब्राह्मण में कहा है कि सारे प्राण मन से सम्पन्न हैं।
ऋक् -यजु:-साम ही मन-प्राण-वाक् बनते हैं। ऋक् -यजु:-साम को वेदत्रयी कहते हैं। इनमें से ऋक्-साम नपुंसक कहलाते हैं। यजु: पुरुष कहलाता है। ऋक्-साम के स्थिर विस्तार में यजु:-पुरुष सृष्टि-निर्माण करता है। यजु: में यत् और जू-ये दो भाग हैं। यत् गति भाग का नाम है, जू स्थिर भाग का नाम है। जू आकाश कहलाता है। यत्-वायु है। आकाश से ही आगे की सारी सृष्टियां उत्पन्न होती हैं।
ऐतरेय आरण्यक में मन-प्राण-वाक् की स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा है कि मन पूर्व रूप है, वाक् उत्तर रूप है। पहले मन से संकल्प करता है, फिर वाक्से व्यवहार करता है। यह मन-प्राण-वाक् के त्रिक् की कार्यप्रणाली का वैज्ञानिक स्वरूप-दिग्दर्शन है। मन-प्राण-वाक् ही सृष्टि में हर स्तर पर मौजूद रहते हैं। यही ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र रूप में हृदय बनते हैं। हृदय के केन्द्र में अव्यय प्रतिष्ठित है। कृष्ण कहते हैं कि मैं ही अव्यय हूं। योगमाया के सहयोग से सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण करता हूं। अत: समस्त जड़-चेतन का केन्द्र हृदय है। हृदय शब्द में तीन अक्षर हैं-हृ, द और य। ‘हृ’ आहरण, आदान या संग्रह भाव को दर्शाता है। ‘द’ खण्डन, विसर्ग, त्याग आदि को बताता है। यम् नामक तीसरा अक्षर नियामक कहलाता है। यही हृ आगति, द गति और य स्थिति बताता है। ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र ही स्थिति, आगति और गति हैं। हृदय-रूप हैं। तीनों मन-प्राण-वाक् रूप में साथ-साथ ही रहते हैं। हमारे सम्पूर्ण स्वरूप के केन्द्र में यही हृदय हैं।
कई बार हृदय और मन को पर्याय मान लिया जाता है। दोनों एक नहीं हैं। हृदय मन का आश्रय बनता है। मन आता-जाता रहता है। मन की इस गति से ही हृदय स्थित (केन्द्रगत) ब्रह्मा की स्थिति का खण्डन (विचलन) होता है। इन्द्र, मन और प्राण की गति के अनुरूप ब्रह्मा का उच्छिष्ट (अलग हुआ) बाहर ले जाता है। ब्रह्मा के इस खण्डन की पूर्ति विष्णु सोम के द्वारा करता है। यह इच्छा पूर्ति की स्थिति है। इसमें ब्रह्मा का स्वरूप पुन: प्रतिष्ठित हो जाता है।
मन, इच्छा के साथ पैदा होता है। इच्छापूर्ति के साथ मर जाता है। हृदय अक्षर है, स्थायी है। ब्रह्मा इसकी प्रतिष्ठा है। विष्णु पालक-पोषक प्राण है तथा इन्द्र विक्षेपण करता है। विसर्जन करने वाला प्राण है। हृदय ही आत्मा अथवा श्वोवसीयस मन (अव्यय मन) का स्थान है। हृदय का स्थिति-गति-आगति स्वरूप ही उक्थ-अर्क व अशिति भी कहा जाता है। उक्थ-केन्द्र, अर्क-रश्मियां तथा अशिति बाहर से लाया जाने वाला अन्न है। यह त्रिक् वेद विज्ञान में अशनाया बल कहलाता है।
अशनाया का मतलब बुभुक्षा यानी भूख है। यह अशनाया बल भी केन्द्रस्थ मन से ही उत्पन्न होता है। जहां मन में अशनाया बल (यानी खाऊं-खाऊं की इच्छा) उठता है उस बिन्दु का नाम उक्थ है। इस भूख को शान्त करने के लिए मन (उक्थ) से इच्छा की रश्मियां बाहर फैलती हैं-अन्न (सोम) को लाने के लिए। इसका नाम अर्क है। ये इच्छा-किरणें जिस अन्न को लाकर शरीराग्नि में आहूत करती हैं उस अन्न को अशिति कहते हैं। यह अन्न लाकर शरीर का पालन करता है। शरीर में आने वाला अन्न ही प्राण बनता है जो शरीर की विभिन्न गतिविधियों को चलाता है। फिर प्राणावस्था में रोमावलियों से अग्नि रूप में बाहर चला जाता है। शरीर में फिर अन्न की कमी महसूस होने लगती हैं। फिर से अन्न की इच्छा उठती है और अन्न आहुत होकर अर्क बन जाता है। यह अन्न-अर्क-प्राण के परस्पर सहयोग से शरीर का यज्ञ चलता है।
मन-प्राण-वाक् की प्रधानता से क्रमश: अव्यय, अक्षर और क्षर पुरुष का निर्माण होता है। उसी प्रकार इनकी प्रधानता से क्रमश: भाव सृष्टि, प्राण सृष्टि और भूत सृष्टि बनती है। जो सृष्टि कामना से उत्पन्न होती है वह ज्ञान सृष्टि अथवा मानसी सृष्टि कही जाती है। एकोऽहं बहुस्याम् रूप ब्रह्म की सृष्टि कामना मानसी सृष्टि है। अक्षर पुरुष से गुण सृष्टि होती है। इसे देव सृष्टि अथवा प्राण सृष्टि भी कहते है। क्षर पुरुष से विकार सृष्टि होती है जिसे अर्थ सृष्टि अथवा भूत सृष्टि कहते हैं। कृष्ण भी गीता में भूत सृष्टि को स्पष्ट करते हुए कहते है-
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान्।। १३.१९ अत: मन, प्राण और वाक् ही सृष्टि के कारक है, ये तीनों सृष्टि में सभी जगह विद्यमान रहते हैं।
विज्ञान वार्ता : सृष्टि में त्रिक् का सिद्धान्त