सर्दियों की अभी शुरुआत हो ही रही है। अभी से यह हाल है तो जब शीतलहर का दौर होगा तब क्या होगा? एक दिन में ही 400 उड़ानों पर असर आना प्रदूषण का दुष्परिणाम ही है। स्वच्छ प्राणवायु आम आदमी के जीवन का मौलिक अधिकार है। सरकारें और प्रशासन लोगों को यह अधिकार देने में विफल साबित हो रहे हैं तो अदालतों को दखल करना पड़ रहा है। पिछले दस साल में प्रदूषण के आधिक्य ने दिल्ली को लगभग नहीं रहने लायक शहर के रूप में स्थापित कर दिया है और लगभग इतने ही समय से न्यायपालिका बचाव उपायों को लेकर दिशा-निर्देश और आदेश जारी करती आ रही है। न्यायपालिका के इतने हस्तक्षेप के बावजूद हालात नहीं सुधरे हैं। वजह भी यही है कि इन दिशानिर्देशों की किसी ने परवाह की ही नहीं। आतिशबाजी पर प्रतिबंध को लेकर जारी किए जाने वाले आदेश तो इस अवहेलना की ताजा बानगी है। सुप्रीम कोर्ट ने अब दिल्ली में पूरे साल पटाखों पर प्रतिबंध की मंशा जताई है। लेकिन जो प्रवृत्ति चल रही है, उसमें यह लगता नहीं कि इस मंशा की पालना पूरी तरह हो पाएगी। पराली जलाने को लेेकर प्रतिबंधात्मक उपायों का भी संबंधित राज्यों में ऐसा ही हश्र हो रहा है। दरअसल, सख्त उपाय लागू किए बिना सभी तरह के प्रदूषणों की रोकथाम आसान नहीं है। वायु प्रदूषण की रोकथाम भी सख्ती से ही हो सकती है। इसके लिए कड़े से कड़े कदम उठाने से भी परहेज नहीं किया जाना चाहिए।
हवाई मार्ग ही नहीं, सडक़ व रेल मार्गों पर आवागमन भी प्रदूषण के कारण बाधित हो सकता है। जिम्मेदारों को इतना तो समझना ही होगा कि दिल्ली ही नहीं, दूसरे शहरों को भी रहने लायक बनाना उनकी नैतिक जिम्मेदारी है। खास तौर से उस समय जब देश की शीर्ष अदालत भी चिंता जाहिर कर चुकी है। प्रदूषण रोकथाम उपायों को लागू करने में अब विलम्ब नहीं होना चाहिए।