जब यह वित्तीय सुनामी सारी दुनिया में चल रही थी तो आशंका व्यक्त की गई थी कि इसका बेहद बुरा प्रभाव विकासशील भारत पर पड़ेगा जहां वित्तीय संसाधन पश्चिमी देशों के मुकाबले में सीमित हैं और आर्थिक दक्षता नहीं है। नतीजतन कई कंपनियों ने कमर कस ली और छंटनी से लेकर लागत कम करने के सभी उपाय कर लिए जिससे आसन्न संकट टल जाए। संतोष की बात रही कि यहां ऐसा कुछ नहीं हुआ। इस बात ने विदेशी आर्थिक विशेषज्ञों को हैरान कर दिया और इस बात पर गहन चिंतन हुआ कि आखिर भारतीय वित्तीय संस्थान और बैंक इसके लपेटे में क्यों नहीं आए। तब यह पाया गया कि भारतीयों ने बैंकों वगैरह से लोन बहुत कम लिया था और जो लोन मकान वगैरह खरीदने के लिए लिया था उसके एवज में बकायदा उतने मूल्य की गिरवी भी रखी थी। लोगों में इतनी क्षमता थी कि वित्तीय व्यवधान के बावजूद वे अपनी किस्तों का भुगतान कर रहे थे और आर्थिक रूप से मजबूत दिख रहे थे।
दिलचस्प बात यह भी थी कि बहुत बड़ी तादाद में ऐसे लोग भी थे जो नकद देकर मकान-दुकान या वाहन वगैरह खरीद रहे थे। उनकी इस वित्तीय ताकत ने देश को बचा लिया और उस सुनामी का बहुत ही मामूली असर दिखाई पड़ा। नौकरियां जाने के बावजूद वे अपने पैरों पर खड़े थे। उनकी क्रय शक्ति में कमी तो आई लेकिन वे आर्थिक रूप से विपन्न नहीं हुए। और यह सब इसलिए हुआ कि उनके पास बचत थी जो बैंक बैंलेंस के रूप में थी और काफी कुछ सोने-चांदी के रूप में भी। उन्होंने यह सब कुछ बुरे समय के लिए ही रखा था और यह उनके उपयुक्त समय में काम आया।
ऐसा ही कुछ कोरोना के संकट के दौरान हुआ जब बड़े पैमाने पर नौकरियां तो गईं, छोटे व्यवसायों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और आमदनी घट गई। तब बचत के पैसों से उन्होंने घर चलाया और बुरा समय निकाला। भारत और चीन दुनिया में दो ऐसे देश हैं जिनके लोग हजारों वर्षों से बचत करते रहे हैं। अपनी मेहनत की कमाई में से एक हिस्सा वे बचाकर रखते थे जो उनके बुरे वक्त या फिर सामाजिक जिम्मेदारियों के निर्वहन में काम आता था। आपने मिट्टी के हांडियों में सोने के सिक्के पाए जाने की कई खबरें सुनी होंगी या फिर जमीन में गड़े धन के बारे में जरूर पढ़ा होगा। पर मध्य काल के बाद अंग्रेज आए और उन्होंने अपने डेढ़ सौ साल के शासन में भारतीय अर्थव्यवस्था को लूटकर बर्बाद कर दिया। इससे भारतीयों की परचेजिंग पॉवर और इनकम दोनों ही निम्नतम स्तर पर जा पहुंची थी। फिर एक ऐसा समय आया जब एफडी के माध्यम से लोग पैसे बचाने लगे। करोड़ों लोग बुढ़ापे के लिए, तो काफी बड़ी तादाद में लोग घर-परिवार की जिम्मेदारियों के लिए बचाने लगे।
लेकिन हाल के वर्षों में बहुत चिंताजनक प्रवृत्ति दिखाई दे रही है। 2020 के बाद से लोगों में, खासकर युवा वर्ग (जिसे मिलेनियल कहा जाता है) बढ़-चढ़ कर खर्च करने की प्रवृत्ति तो देखी जा रही है, पर बचत में विश्वास कम ही देखा जा रहा है। जेब में पैसे न हों तो वे क्रेडिट कार्ड से खर्च कर रहे हैं। आंकड़े बता रहे हैं कि सितंबर 2024 में क्रेडिट कार्ड से भारतीयों ने 1.76 खरब रुपए खर्च किए। यह पिछले साल की तुलना में 25 फीसदी ज्यादा है। यह राशि छह माह में सबसे ज्यादा है, यानी अब लोग पैसे बचाने की बजाय खर्च करने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं।
भारत में बचत की प्रवृत्ति घट रही है। इसका एक उदाहरण इस तथ्य से मिलता है कि 2023 में देश में घरेलू बचत घटकर जीडीपी की 18.4 प्रतिशत रह गई जबकि 2022 में यह 22.7 प्रतिशत थी। एक शोध से पता चलता है कि देश को जीडीपी में 8 फीसदी से ज्यादा बढ़ोतरी चाहिए तो हमें 35 प्रतिशत बचत और निवेश करना ही होगा। यहां पर समस्या यह है कि बैंकों की ब्याज दरें इतनी नहीं हैं कि वे अब लोगों को आकर्षित करें। उनकी बचत का पैसा अब म्युचुअल फंड में जा रहा है क्योंकि वहां से उन्हें बेहतर रिटर्न की उम्मीद होती है। आंकड़ों के मुताबिक 2022 की पहली तिमाही में बैंकों में डिपॉजिट 50 सालों के न्यूनतम पर जा पहुंचा।
अभी जरूरी है कि सरकार बचत को प्रोत्साहित करने के लिए कदम उठाए। बचत स्कीमों से आया पैसा सरकार की योजनाओं पर ही खर्च होता है। यह उधार लेने के लिए सरकार के पास सस्ता और सुगम रास्ता है। अगर बचत घटती जाएगी तो सरकारें महंगी दरों पर बाजार से पैसा उठाएंगी जो लाभकारी नहीं होगा। बचत जनता और सरकार दोनों के लिए जरूरी है। बचत निश्चित रूप से बुरे वक्त का साथी बनेगी, जैसा कि होता आ रहा है।