यह शरीर जिस पर हम अभिमान कर रहे हैं स्थूल शरीर कहा जाता है। इसको आधार प्रदान करने वाले कारण व सूक्ष्म शरीर है। ‘यथाण्डे तथा पिण्डे’ सिद्धान्त के अनुसार हमारा शरीर ब्रह्माण्ड की प्रतिकृति है। ब्रह्माण्ड के निर्माण में ब्रह्म की कामना, तप व श्रम इन तीन क्रियाओं को आधार माना जाता है। ये ही क्रमश: मन, प्राण और वाक् कहे जाते हैं। सृष्टि में ये ही तीनों हमारा आत्मा कहलाते हैं।
हमारे इस त्रिविध शरीर की संरचना को जानने का एक सूत्र है-पंचकोश का सिद्धान्त। उसके अनुसार यह शरीर पांच कोशों में विभाजित है। इसमें जीव से ब्रह्म तक सब कुछ प्रतिष्ठित है। स्थूल शरीर अव्यय ब्रह्म की पांच कलाओं का प्रतिबिंब है। आनन्द-विज्ञान-मन-प्राण और वाक् अव्यय पुरुष की पंच कलाएं हैं। ब्रह्माण्ड की रचना के अनुरूप ही पिण्ड की भी सृष्टि होती है। अव्यय पुरुष की ये पांच कलाएं ही हमारे शरीर का पंचकोषीय आवरण हैं। बाहरी आवरण अन्नमय कोश है। केन्द्र में आनन्दमय कोश है। इन दोनों कोशों के मध्य प्राणमय-मनोमय तथा विज्ञानमय कोश है। अव्यय पुरुष सृष्टि का प्रथम पुरुष है। कृष्ण कहते हैं कि पुरुषों में मैं अव्यय पुरुष हूं। ब्रह्म को आनन्द घन कहा जाता है। जीवन सत्ता वास्तव में आनन्द पर ही निर्भर है। हम जब तक जीते हैं तब तक आनन्द से तथा आनन्द की आशा से ही जीते हैं।
सूक्ष्म सृष्टि जब स्थूल रूप में आती है तो वहां भी ब्रह्म प्रत्येक प्राणी में प्रतिष्ठित हो जाता है। ब्रह्म की प्रतिष्ठा वाला यह कोश आनन्दमय कोश कहा जाता है। सबका आलम्बन (आधार) बनता हुआ, अव्यक्त अवस्था में रहने वाला ब्रह्म का स्थान आनन्दमय कोश है। यह सबका आलम्बन इसलिए कहा जाता है क्योंकि यदि आनन्द भाव कहीं भी रुक जाए तो आगे के कोश कोई भी काम नहीं कर पाएंगे। इसलिए यह सबका आधार है-‘आनन्दादेव सर्वमेतद्ïभवति।’ यदि आनन्द नामक तत्त्व न हो तो वह अवस्था ‘सब सुनसान हो गया है,’ कही जाएगी। आनन्दमय कोश जागृत होने पर जीव अपने को अविनाशी ईश्वर जानने लगता है।
चेतना से वस्तु की उत्पत्ति को विज्ञान कहते हैं। चेतना से वस्तु की छवि स्मृति/बुद्धि तक पहुंची तो पता चला ये वस्तु यह है, और इस काम आती है। यह विज्ञान है। चेतना ने उस वस्तु को पहले ग्रहण किया और फिर उसे आत्मा तक पहुंचाया। स्मृति, आत्मा के साथ रहती है और जन्म-जन्म तक चलती है। चेतना में जो स्वरूप पैदा हुआ वह आत्मा में आ गया, यह ज्ञान है। अत: यह विज्ञानमय कोश ज्ञान प्रधान है। विज्ञानमय कोश में सत्व, रजस् और तमस्-इन तीनों गुणों के संयोग से बुद्धि पैदा होती है। जिसके द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नया निर्माण संभव होता है। किन्तु बुद्धि को ही विज्ञान समझने से मौलिक आनंद की प्राप्ति नहीं हो पाती। क्योंकि विज्ञानमय कोश तो साधन मात्र है। साध्य तो आनन्द ही है।
तीसरा मनोमय कोश है। इसके दो भेद हैं—एक-त्रिगुण भाव से मिला हुआ व्यावहारिक मन। दूसरा-गूढ़तम मन जो आनन्द और विज्ञान से जुड़ा हुआ है। इसका ही संकेत गीता में ‘ईश्वर सर्वभूतानां हृद्ïदेशे’ कहकर किया गया है। जहां सत्व-रज-तम से जुड़ा व्यावहारिक मन कभी दु:खी और कभी सुखी होता है, वहां इस गूढ़तम मन का शुद्ध आनन्दभाव है, शुद्ध विज्ञानभाव है। इसी गूढ़तम मन को यदि किसी भी अभ्यास के द्वारा पा लिया जाए तो जीवन कृतार्थ माना जाता है। विज्ञान भाव में आनन्दरूप इस गूढ़ मन से जुड़ जाने पर बल आ जाता है। तब प्रेरणा पाकर प्राणों की प्रक्रिया संयत और सुदृढ़भाव में सारे सांसारिक कार्यों का सम्पादन उचित रूप से कर पाती है। साथ ही उस विज्ञानमय मन पर दृष्टि रहने के कारण प्राणमय कर्म बन्धन से मुक्त रहता है। पांचों कोशों में मध्यगत तत्त्व होने के कारण यह मनोमय कोश अति गहन गम्भीर है। इसी मन की दो गतियां हैं-बंध और मोक्ष। सृष्टि साक्षी और मुक्ति साक्षी।
शरीर को चलाने का, विकसित करने तथा मन से जोडऩे का कार्य प्राणमय कोश करता है। शरीर में पांच मुख्य तथा पांच गौण प्राण स्थूल रूप से कार्य करते हैं। इन्हें प्राण, अपान, उदान, समान, व्यान नाम के मुख्य प्राण तथा नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनञ्जय नामक गौण प्राणों से जाना जाता है। सृष्टि के मूल प्राण—ऋषि, पितृ, देव आदि प्राणों का ही परिवर्तित रूप होते हैं। व्यक्ति ऋषि, पितृ और देव ऋण साथ लेकर जन्म लेता है और मृत्यु से पूर्व ऋण मुक्त होना भी चाहता है। प्राण ही मन का पोषण करते हैं।
प्राण हमारे सूक्ष्म शरीर हैं। हमारी चित्तवृत्तियों का संचालन प्राण ही करते हैं। प्राणमय कोश के सहारे हम जीवन के गूढ़तम रहस्यों को समझ सकते हैं। अपने मन को जान सकते हैं। मन के आवरण देख सकते हैं, उन्हें दूर करने का प्रयास कर सकते हैं। हमारा मनोमय कोश इसी प्राणमय कोश के भीतर रहता है। इसी मनोमय कोश से हमारी पांच कर्मेन्द्रियां जुड़ी हैं—हाथ, पैर, गुदा, मूत्रेन्द्रिय और मुख। इच्छा मन में उठती है। बुद्धि उसे आत्मा तक पहुंचाती है। आत्मा की स्वीकृति मिलने पर इन्द्रियों के माध्यम से स्थूल शरीर तदनुरूप कर्म में जुट जाता है। हमारे प्रारब्ध कर्म मन में ही संचित रहते हैं। अत: कर्मों का क्षय भोगने से ही होता है। गीता में कृष्ण कहते हैं—’ज्ञानाग्नि सर्व कर्माणि भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन’ अर्थात्ï ज्ञानाग्नि सब कर्मों को भस्म कर देती है।
हमारा शरीर पंच महाभूतों—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना है। इसका पोषण अन्न से होता है, अत: इसे अन्नमय कोश की संज्ञा दी गई है। अन्न से ही रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र का निर्माण होता है। इस शरीर की आकृति, प्रकृति और अहंकृति आत्मा के अनुसार ही होती है। शरीर मन की इच्छापूर्ति का साधन भी है। अत: इसका सदा निरोग रहना आवश्यक है ताकि कोई इच्छा अपूर्ण न रह जाए। जीवन कर्म-प्रधान होने से शरीर ही मूल साधन है। सृष्टि विस्तार का भी और आत्म-दर्शन का भी। शरीर के साथ ही परिवार, समाज एवं सृष्टि के स्थूल बन्धन जुड़े होते हैं। जब व्यक्ति सभी सृष्ट वस्तुओं अथवा प्राणियों में एक ही सत्ता को मान लेता है तो वह अन्तर्मुखी होता है। इसी को गीता में स्थितप्रज्ञ कहा गया है। कृष्ण कहते हैं कि जब मनुष्य मन में स्थित समस्त कामनाओं का परित्याग कर देता है तब आत्मा में ही संतुष्ट रहने वाला पुरुष स्थिर बुद्धि कहा जाता है। (गीता २/५५)।
इन पांचों कोशों में से विज्ञानमय कोश ब्रह्म की प्राप्ति में महत्वपूर्ण कारक है क्योंकि यहां हमारी बुद्धि निवास करती है। बुद्धि के साथ हमारी ज्ञानेन्द्रियां जुड़ी हैं-इनमें मन को सम्मिलित कर छह ज्ञानेन्द्रियां हैं-‘मन: षष्ठानीन्द्रियाणि।’ यह ज्ञान का क्षेत्र है। ज्ञान से ही हमारा सूक्ष्म-स्थूल और कारण समझ में आता है। ज्ञान ही आत्मा का बोध करता है। जब व्यक्ति अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोश के आवरण पार कर लेता है तो वह ज्ञान का अधिकारी बन जाता है अत: ज्ञान की प्राप्ति में बुद्धि सहायक सिद्ध होती है।
यही ज्ञान उसे विज्ञानमय कोश के भीतर स्थित आनन्दमय कोश का परिचय करा देता है। यह हमारे आत्मा, जीव और ईश्वर का स्थान है। यहीं से ‘मैं’ निकलता है। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ भी यही है। सृष्टि के व्यापार का उद्ïगम स्थल भी यही है। आनन्द ही सृष्टि के विस्तार का मूल हेतु भी है। आनन्द में ही सृष्टि का उदय स्थान और लय स्थान है।