यही तो है कलाओं का सौन्दर्यबोध। शास्त्रीय संगीत को सुनते हैं, तो वहां क्या शब्दों की सहायता की जरूरत होती है? शब्दों के अमूर्तन में ही हम वहां भीतर का उजास पा लेते हैं। चित्रकला में सब कुछ सीधा-सादा ही थोड़े ना होता है। वहां टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएं, रंगों का छितरापन और ढुलमुलापन, आकृतियों के बिखराव में भी हम देखने के सुख को भीतर से अनुभूत कर लेते हैं। सर्जन के क्षणों में कलाकार नहीं जानता है कि वह क्या कर रहा है, परन्तु श्रोता और दर्शक उसकी उस निर्वेयक्तिक बौद्धिकता को पहचान लेते हैं।
अमूमन प्रकृति खिली-खिली हमें लुभाती है, पर पतझड़ हमें गहरी उदासी देते हुए भी अंदर के अवर्णनीय सौंदर्यबोध से भर देता है। कला में उसे अनुभूत कर हम कभी रोते हैं, कभी बेहद भावुक हो जाते हैं, तो कभी यही असुन्दरपन हमें वर्तमान को नए सिरे से देखने की आंख भी देने लगता है। नवीन सर्जन तभी तो होगा, जब विसर्जन करेंगे। कलाएं इस सौंदर्यबोध से ही हमें साक्षात कराती है।
(लेखक कला समीक्षक हैं)