देश की राजधानी होने के कारण दिल्ली सरकार उन अधिकारों से वंचित है, जो हमारे दूसरे राज्यों को हासिल हैं। जनता से निर्वाचित मुख्यमंत्री और केंद्रीय प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त उपराज्यपाल के बीच अधिकारों की जंग राज्य बनाए जाने के बाद ही शुरू हो गई थी। दरअसल दिल्ली को विशेष राज्य का दर्जा हासिल है। यह निर्वाचित विधानसभा के साथ केंद्र शासित प्रदेश है। 1991 में बनाए गए कानून के अनुसार, केंद्र सरकार के हितों की रक्षा की जिम्मेदारी उपराज्यपाल पर है। जमीन, पुलिस और प्रशासन उपराज्यपाल के अधीन हैं। लेकिन, अन्य मामलों में उपराज्यपाल चुनी हुई सरकार का निर्णय मानने को बाध्य हैं। नए विधेयक को मंजूरी मिल गई, तो दिल्ली सरकार राज्यपाल की स्वीकृति के बगैर कोई निर्णय नहीं कर पाएगी। यानी 1991 का कानून और 2018 का सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला, जिसमें दोनों संवैधानिक पदों के अधिकारों को स्पष्ट किया गया था, का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की यह आशंका निर्मूल नहीं है कि यदि ऐसा हुआ तो दिल्ली में निर्वाचित सरकार और विधानसभा अनुपयोगी हो जाएंगे। निर्वाचित सरकार होने के बावजूद व्यवहार में केंद्र का ही राज स्थापित होगा।
दरअसल, दिल्ली की 70 में से 62 विधानसभा सीटों पर आप का कब्जा है। अपने शासनकाल में केजरीवाल सरकार ने स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया है और अब इस मॉडल को देशभर में भुनाना चाहती है। पंजाब की राजनीति में अपना प्रभाव दिखाने के बाद इस बार भाजपा के गढ़ गुजरात में हुए निकाय चुनावों में भी उसने असर दिखाया है। पहले दिल्ली में उसने कांग्रेस के वोटबैंक में सेंध लगाई। अब आप एक ऐसे दल के रूप में उभर रही है, जो भाजपा के परंपरागत वोटबैंक शहरी मध्यम वर्ग में सेंध लगा सकती है। उपराज्यपाल को पूरी तरह दिल्ली का बॉस बनाने वाले विधेयक का कहीं असली मकसद आप को विचलित करना तो नहीं है?