लेकिन पिछले वर्षों में कलक्टरों का ध्यान इन दायित्वों से लगभग हट गया है। उनकी भूमिका कलक्टर की बजाय ‘बड़े बाबू’ की तरह हो गई है। ढेरों कागज, कभी न खत्म होने वाली फाइलें, अनवरत बैठकें, अथाह रिपोर्टें और नेताओं की अनिवार्य जी-हुजूरी। इन सभी में उनका दम खप रहा है। कुछ नया करना या कर गुजरना तो दूर, जनता के प्रति सामान्य दायित्व निभाने पर भी ध्यान नहीं है।
क्या समूचे राजस्थान में कोई ऐसा कलक्टर है, जिसने शहरी जनता से समन्वय सतत बेहतर बनाने, गांवों की चौपालों में शामिल होने, गांवों में रात्रि ठहराव करने का सिलसिला अब तक बरकरार रखा हो? जनता से दूरी का यह सिलसिला आखिर कब तक चलेगा? जनता के काम नहीं होंगे, लोगों की परेशानियां दूर नहीं होंगी तो क्या मर्ज बढ़ता नहीं जाएगा? जरूरतों के आधार पर विकास की ओर ध्यान नहीं दिया गया तो क्या जिलों के रूप में पिछड़ते-पिछड़ते पूरा राजस्थान गर्त में नहीं चला जाएगा?
सोचने वाला बिन्दु यह है कि कलक्टर ही फाइलों-बैठकों में व्यस्त रहकर खुश हैं या सरकार उन्हें जनता के काज नहीं साधने देना चाहती? यदि कलक्टर खुद काम नहीं करना चाहते तो पद और अधिकारों पर कुंडली क्यों? यदि सरकार उन्हें बांधे रखना चाहती है तो ‘जनता के लिए’ का खोखला नारा क्यों? नीति नियंताओं को इस पर विचार करना चाहिए। सरकार को चाहिए कि कलक्टरों पर काम का बोझ है, तो अनुपयोगी-अनुत्पादक कार्यों को चिह्नित करे।