गौर करने की बात है कि जीवन रक्षक दवाओं की आवश्यकता को तो सरकार ने माना है, किन्तु इन्हें पूरी तरह से टैक्स मुक्त नहीं किया है। इसके अलावा जो दवाएं हैं, उन पर 12 प्रतिशत के करीब टैक्स की वसूली हो रही है। चिकित्सा वस्तुओं और उपकरणों पर भी टैक्स लग रहा है। अत: उच्च न्यायालय के निर्णय की रोशनी में इन टैक्स को समाप्त करने के तर्क पर विचार की आवश्यकता है। राजस्व जुटाने के दूसरे तरीके भी हो सकते हैं, किन्तु चिकित्सा क्षेत्र से राजस्व जुटाने से बचना चाहिए। भारत जैसे देश में जहां अच्छी चिकित्सा सुविधा बहुत सहजता से उपलब्ध नहीं हो, जहां मरीजों को इलाज के लिए दूर शहर भी जाना पड़ता हो, वहां सरकार की सोच ज्यादा मानवीय हो जाए, तो सोने पर सुहागा है। सभ्यता तो यही कहती है कि कोई भी मरीज अपनी बीमारी, दर्द और चिकित्सा खर्च के साथ किसी अस्पताल में विवश और अकेला न छूट जाए।
केरल उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस विनोद चंद्रन, जस्टिस मुहम्मद मुस्ताक, जस्टिस अशोक मेनन ने अपने निर्णय में यह भी कहा है कि अस्पतालों को व्यवसाय न माना जाए। यह सेवा धर्मार्थ नहीं है, किन्तु व्यवसाय भी नहीं है। चिकित्सा सेवा पर यह एक अति महत्त्वपूर्ण और तार्किक टिप्पणी है। आज यह बात किसी से छिपी नहीं है कि चिकित्सा क्षेत्र उद्योग की तरह हो गया है और प्रति वर्ष करीब 17 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। भारत में चिकित्सा क्षेत्र वर्ष 2022 तक 26, 412 अरब रुपए का हो जाएगा। ऐसे तेज विकास से किसी को परहेज नहीं है, किन्तु इस विकास में कोई अनुचित वसूली शामिल नहीं होनी चाहिए। किसी भी मरीज पर खर्च का वही बोझ पड़े, जो अति आवश्यक हो। हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि भारत में दुनिया की सबसे बड़ी चिकित्सा योजना द्ग आयुष्मान भारत द्ग 23 सितंबर 2018 को शुरू हो चुकी है। इस योजना पर सरकारें प्रति परिवार 5 लाख रुपए से ज्यादा खर्च करने को तैयार हैं। यह योजना अच्छी है, किन्तु इसके दूसरे पक्षों पर भी हमारी सरकारों को पर्याप्त विचार कर लेना चाहिए। एक तरफ मरीजों से टैक्स की वसूली और दूसरी तरफ मरीजों को स्वास्थ्य बीमा का लाभ! चिकित्सा बीमा से कहीं अधिक आवश्यकता इस बात की है कि चिकित्सा खर्च को ही कम से कम कर दिया जाए, ताकि मरीजों को सहजता से सीधे ही लाभ पहुंच सके। इस दिशा में केवल केन्द्र सरकार को ही नहीं, बल्कि राज्य सरकारों को भी कदम उठाने चाहिए।