पहला मुद्दा जलवायु पूंजी सहायता का है। बाकू (अजरबैजान) में आयोजित हो रही 29वीं कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज में अमरीका जलवायु पूंजी सहायता में योगदान के अपने वादे से मुकर सकता है। 2015 में कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज-21 में अमरीका ने विकासशील देशों को यह सहायता देने का ऐतिहासिक समझौता किया था। 2016 में ट्रंप के शुरुआती निर्णयों में से एक था पेरिस समझौते से बाहर निकलना। 2009 के कोपेनहेगन सम्मेलन से अब तक विकसित देशों ने हर साल 100 अरब डॉलर देने का वादा किया, जो इतने वर्षों में केवल एक बार ही पूरा हुआ। अमरीका 2017-2020 के बीच अपने वादे पर खरा नहीं उतरा। राष्ट्रपति ट्रंप के अधीन यह प्रतिबद्धता कम होगी और इससे विकसित देशों का जलवायु परिवर्तन शमन एवं नवीकरणीय ऊर्जा अपनाने के लिए वित्तीय मदद का सामूहिक संकल्प कमजोर होगा। चूंकि विकसित देश ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में अग्रणी रहे हैं, इसलिए पूंजी और सुधार की चर्चा ‘जलवायु न्याय’ से जुड़ी है। राष्ट्रपति ट्रंप जलवायु अन्याय के आरोप से बचने या इनकार करने की कोशिश करेंगे और अमरीका अपने वादे से पीछे हट जाएगा। इससे भारत को नुकसान हो सकता है, क्योंकि 2070 तक शून्य उत्सर्जन प्राप्त करने के लिए 10 ट्रिलियन डॉलर से अधिक की जरूरत होगी और इसमें से काफी धन अमरीका सहित बहुपक्षीय स्रोतों से आना होगा।
दूसरा बड़ा मुद्दा आव्रजन का है। यह उल्लेखनीय है कि ओबामा ने अपने प्रचार अभियान के दौरान ‘मेरी नौकरी बेंगलूरु ने खा ली’ का नारा उछाला था। नौकरियां बाहरी देशों में जाने की धारणा ने ट्रंप समर्थकों को आंदोलित किया है। अपनी नौकरी खो देने वाला हर व्यक्ति बेंगलूरु पर अंगुली उठाता है। ट्रंप 2.0 में अवैध प्रवासियों की संभावित बड़ी संख्या में वापसी और एच-1 बी वीजा प्रक्रिया में सुधार से भारतीय आइटी पेशेवरों के लिए अमरीका में रहना मुश्किल हो जाएगा। एच-1 बी नए वीजा की तरह उनके नवीनीकरण भी लॉटरी बन गए हैं, क्योंकि केवल एक तिहाई आवेदक ही इसमें सफल हो पाते हैं। बाकी को अमरीका छोडऩा होता है। भले ही तकनीकी कंपनियां ऐसे प्रतिबंधों का विरोध करेंगी, पर राष्ट्रपति ट्रंप के पास इसे आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त राजनीतिक ताकत होगी। उनके समर्थक श्रमिक नौकरियों को वापस अमरीकियों के लिए लाने के पक्ष में हैं।
तीसरा मुद्दा व्यापार शुल्कों का है। ट्रंप ने सख्त और संरक्षणवादी दृष्टिकोण वाले रॉबर्ट लाइटहाइजर को व्यापार प्रमुख नियुक्त किया है। अमरीका न केवल चीन और रूस, बल्कि भारत, यूरोपीय संघ, कोरिया और जापान पर उच्च आयात शुल्क लगा सकता है। केवल कनाडा, मैक्सिको और अन्य मुक्त व्यापार समझौता देश ही बचे रह सकते हैं। इस कदम को जैसे को तैसा वाला जवाब मिल सकता है और ट्रंप के पहले कार्यकाल की तरह व्यापार युद्ध की स्थितियां पैदा हो सकती हैं। प्रबल चीन विरोधी भावना के चलते चीन के सख्त रुख के कारण हम तकनीक के क्षेत्र में शीत युद्ध को और बढ़ता देखेंगे, क्योंकि दुनिया चीन-उन्मुख और अमरीका के वर्चस्व वाले क्षेत्र में बंट सकती है। हालांकि अभी भी मजबूत अमरीका-चीन व्यापार के बीच यह संतुलन कैसे कायम होगा, यह देखना बाकी है।
चौथा मुद्दा मध्य पूर्व और यूक्रेन के युद्धों में अमरीका के समर्थन का है। ट्रंप ने एक बार अमरीका से हमेशा 100 बिलियन डॉलर की सैन्य और अन्य सहायता लेकर लौटने वाले यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की को सुपर सेल्समैन बताया था। ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में यूक्रेन के लिए समर्थन घट सकता है। भले ही यूक्रेन और इजरायल को हथियारों की सहायता और बिक्री ने अमरीकी रक्षा कंपनियों के भाग्य और शेयर मूल्य में मदद की है, पर इस पर पुनर्विचार तय है। यानी राष्ट्रपति ट्रंप अमरीका को तटस्थतावाद की ओर धकेल सकते हैं और वैश्विक पुलिसकर्मी के रूप में इसकी भूमिका कम कर सकते हैं। ऐसा अमरीकियों की इस धारणा के कारण हो सकता है कि दुनिया भर में हथियारों और सुरक्षा पर इतने सारे खर्च का उन्हें कोई लाभ नहीं। अमरीका पर 35 ट्रिलियन डॉलर के राष्ट्रीय ऋण का बोझ है। उच्च ब्याज दरों के कारण यह बोझ असह्य हो रहा है। यही वजह है वैश्विक भागीदारी से दूर अधिक अंतर्मुखी रुख अपनाने की। इसका अर्थ होगा ताइवान व चीन के आसपास के समुद्रों सहित विभिन्न संघर्ष क्षेत्रों में अधिक अस्थिरता। बुश-कालीन विदेश मंत्री कोंडोलीजा राइस ने हाल ही में एक लेख में तटस्थतावाद की ओर इस झुकाव के खिलाफ चेतावनी दी है। ट्रंप इस पर ध्यान देंगे, यह देखना शेष है।
अमरीका को बहुत ज्यादा कर्ज, लगातार उच्च ब्याज दरों, आयात शुल्क में की गई बढ़ोतरी से बढ़ी उच्च मुद्रास्फीति और अभी भी कमजोर अर्थव्यवस्था के लिए तैयार रहना होगा। ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में भारत के रिश्ते संभवत: अमरीका के साथ ज्यादा लेन-देन वाले हो जाएंगे, क्योंकि ट्रंप घरेलू मुद्दों को उच्च प्राथमिकता देते हैं।
(द बिलियन प्रेस)