जैसे-जैसे हम 21वीं सदी की जटिलताओं से जूझ रहे हैं, यूनेस्को के सहिष्णुता के सिद्धांतों की घोषणा में निहित मूल्यों को अपनाना अनिवार्य होता जा रहा है। सहिष्णुता का अर्थ केवल मतभेदों को सहन करना नहीं है; यह सक्रिय रूप से उनका सम्मान करने और उनकी सराहना करने में निहित है। यह प्रत्येक व्यक्ति की अंतर्निहित गरिमा और मूल्य को पहचानने के बारे में है, चाहे उनकी पृष्ठभूमि या मान्यता कुछ भी हो। समस्या पैदा होती है सिर्फ अतिवादिता से जिसमें कोई किसी विचार को श्रेष्ठ और सही मानने और मनाने पर अड़ जाता है। समस्या सही को स्वीकार करने में नहीं है, बल्कि तर्कों एवं कुतर्कों से ‘मैं ही सही हूं’ को थोपने में है। यह प्रवृत्ति संवाद से परे विवाद की खाई को और अधिक गहरा और गंभीर करती जा रही है। भारत, विविध धर्मों, भाषाओं और रीति-रिवाजों का देश है।
इस विविधता ने न केवल देश को समृद्ध किया है बल्कि सहिष्णुता और सह-अस्तित्व के लोकाचार को भी बढ़ावा दिया है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का प्राचीन भारतीय दर्शन, सदियों से एक मार्गदर्शक सिद्धांत रहा है। यह दर्शन सभी प्राणियों के अंतर्संबंध और सभी के साथ करुणा और सम्मान के साथ व्यवहार करने के महत्त्व पर जोर देता है। सहिष्णुता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता अटूट है। देश की लोकतांत्रिक संस्थाएं और धर्मनिरपेक्ष संविधान शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए एक रूपरेखा प्रदान करते हैं। किसी भी अन्य राष्ट्र की तरह, सामाजिक सद्भाव बनाए रखने में भारत को भी कुछ चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। भारत में भी कई बार धार्मिक असहिष्णुता और सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं देखी गई हैं। फिर भी, अधिकांश भारतीय बहुलवाद, सह-अस्तित्व और समावेशिता जैसे मूल्यों में विश्वास करते हैं। भारतीय संस्कृति इस बात का सशक्त उदाहरण है कि विविधता शक्ति और रचनात्मकता का स्रोत हो सकती है। देश की शिक्षा प्रणाली युवाओं में सहिष्णुता और सम्मान के मूल्यों को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।