पितर वे हैं जो पिछला शरीर त्याग चुके किन्तु अगला शरीर अभी प्राप्त नहीं कर सके । इस मध्यवर्ती स्थिति में रहते हुए वे अपना स्तर मनुष्यों जैसा ही अनुभव करते हैं । वे साधारण पितरों से कई गुना शक्तिशाली होते हैं जो लोभ-मोह के—राग द्वेष के—वासना तृष्णा के बन्धन काट चुके । सेवा सत्कर्मों की प्रचुरता से जिनके पाप प्रायश्चित्य पूर्ण हो गये । उन्हें शरीर धारण करने की आवश्यकता नहीं रहती । उनका सूक्ष्म शरीर अत्यन्त प्रबल होता है । अपनी सहज सतोगुणी करुणा से प्रेरित होकर प्राणियों की सत्प्रवृत्तियों का परिपोषण करते हैं । सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में योगदान देते हैं । श्रेष्ठ कर्मों की सरलता और सफलता में उनका प्रचुर सहयोग रहता है । ये श्रेष्ठ आत्माएं मुक्त पुरुषों की होती हैं । उदार प्रवृत्ति वाले पितर भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार मुक्त पुरुषों की ही गतिविधियों का अनुसरण करने का प्रयास करते रहते हैं ।
मुक्त आत्माओं और पितरों के प्रति मनुष्यों को वैसा ही श्रद्धा-भाव दृढ़ रखना चाहिए, जैसा देवों—प्रजापतियों तथा परमात्म—सत्ता के प्रति मुक्तों, देवों-प्रजापतियों एवं ब्रह्म को तो मनुष्यों की किसी सहायता की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु पितरों को ऐसी आवश्यकता होती है। उन्हें ऐसी सहायता दी जा सके, इसीलिए मनीषी-पूर्वजों ने पितर पूजन श्राद्ध-कर्म की परम्पराएं प्रचलित की थीं । उनकी सही विधि और उनमें सन्निहित प्रेरणा को जानकर पितरों को सच्ची भाव-श्रद्धांजलि अर्पित करने पर वे प्रसन्न पितर बदले में प्रकाश प्रेरणा, शक्ति और सहयोग देते हैं । पितरों को स्थूल सहायता की नहीं, सूक्ष्म भावनात्मक, सहायता की ही आवश्यकता होती है । क्योंकि वे सूक्ष्म शरीर में ही अवस्थित होते हैं ।