यहां पर कठिन है शिक्षा की डगर, खौफनाक रास्तों के कारण पढ़ाई छोड़ने पर मजबूर नौनिहाल
स्कूल 1 : राप्रा विद्यालय गोविंदपुरा, ग्राम पंचायत काया, तहसील गिर्वा, वर्ष 2006 में बना था। 2020 में ये उच्च प्राथमिक विद्यालय बना दिया गया। यहां 3 कमरे हैं और 140 बच्चे हैं, जो 8वीं तक की पढ़ाई इसी स्कूल में करते हैं। लेकिन स्कूल तक पहुंचने के लिए बच्चों को दो बार नदी पार करनी होती है। बारिश के दिनों में जब नदी उफान पर होती है तब बहुत से बच्चे स्कूल नहीं जा पाते या शिक्षकों को स्कूल में छुट्टी करनी पड़ती है।
स्कूल 2 : राप्रा विद्यालय, खेराखेत डाकनकोटड़ा पंचायत, तहसील गिर्वा 2013 में बना था। यह 5वीं तक का स्कूल है, जिसमें 40 बच्चे अध्ययनरत हैं। इस स्कूल तक पहुंचने के लिए बच्चों को घना जंगल, कच्चा पहाड़ी रास्ता और जंगली जानवरों का सामना करते हुए जाना पड़ता है। यहां केवड़े की नाल है, जहां अक्सर पैंथर हमला कर देते हैं, स्कूल जाते बच्चों पर भी हमले की घटनाएं हो चुकी हैं। 5वीं के बाद बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं क्योंकि यहां से 10 किमी. दूर धोल की पाटी और डाकनकोटड़ा में उच्च माध्यमिक स्कूल हैं।
मधुलिका सिंह/उदयपुर . देश की आजादी के 75 साल पूरे हो चुके हैं। एक ओर सरकार डिजिटल प्रवेशोत्सव कार्यक्रम चलाकर नामांकन बढ़ाने के प्रयास कर रही है तो इसके विपरीत उदयपुर के कुछ आदिवासी बहुल क्षेत्रों के ऐसे स्कूल हैं, जहां की डगर बच्चों के लिए बहुत कठिन और खतरनाक है। ऐसे में आदिवासी क्षेत्र के बच्चों को पढ़ाई छोड़ने पर मजबूर होना पड़ता है। कहीं नदी पार कर पहुंचना पड़ता है तो कहीं घने जंगल का रास्ता तय करना होता है। जहां पैंथर का खतरा हमेशा मंडराता रहता है। सवाल यह है कि अगर स्कूल की डगर ऐसी खौफनाक रहेगी तो बच्चे किस तरह से अपने सपने पूरे करेंगे।
दो नदियां पार कर पहुंचते हैं स्कूल इसी तरह काया स्कूल के प्रधान अध्यापक प्रमोद ने बताया कि राप्रा विद्यालय गोविंदपुरा तक पहुंचने के बीच में बच्चों को दो नदियां पार करनी होती हैं। बारिश के दिनों में इन नदियों में पानी उफान पर होता है, जिससे बच्चे बमुश्किल ही स्कूल आ पाते हैं। कई बार स्कूल की तरफ से छुट्टी करनी पड़ती है। वहीं, नदी पार करते समय सब एक-दूसरे का हाथ थामे रखते हैं, लेकिन फिर भी दुर्घटना की आशंका बनी रहती है।
कभी झोंपड़पट्टी तो कभी मंदिर के चबूतरे पर चला स्कूल राउप्रा विद्यालय खेराखेत के पूर्व अध्यापक भैरूलाल कलाल, अध्यापक सुरेश पटेल, किशन सुथार ने बताया कि यह स्कूल जब शुरू हुआ, तब मंदिर के चबूतरे पर और फिर झोंपड़पट्टी में चलाया जाता था। बाद में वन विभाग से 2 बीघा जमीन मिली और विभाग ने राशि स्वीकृत कर भवन बनवाया, जिसमें 2 कमरे बनाए गए। यहां हर साल बच्चे 5वीं पढ़ने के बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं, क्योंकि आगे की पढ़ाई के लिए 10 किमी. दूर नहीं जाना चाहते। जहां धोल की पाटी और डाकनकोटड़ा में स्कूल हैं। दरअसल, 10 किमी. का रास्ता इससे भी घने जंगल का है। जहां आए दिन जंगली जानवर आते रहते हैं। ऐसे में बच्चे डर के मारे इस रास्ते से नहीं जाना चाहते। ना ही उनके घरवाले उन्हें भेजना चाहते। अगर सरकार व विभाग चाहे तो इस स्कूल का रास्ता पक्का कराया जा सकता है ताकि बच्चों को वहां तक पहुंचने में कोई दिक्कत ना हो।
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