दूसरी बात यह है कि चिन्तन का आधार वह स्थूल जगत् होता है जो हमें दिखाई-सुनाई पड़ता है या समझ में आता है। इसके विपरीत, अचिन्तन का आधार अति सूक्ष्म यानी-आत्मा का स्तर होता है।
यहां न शरीर, न बुद्धि और न मन ही रह सकता है। मन तो इन्द्रियों के साथ जुड़ा होता है। सूक्ष्म से कहीं ज्यादा स्थूल के साथ जुड़ा होता है। अचिन्तन से पूर्व इसीलिए अ-मन की स्थिति आती है, इसके बाद ही अ-चिन्तन की।
निर्विचार की स्थिति
आज पूरे विश्व में चिन्तन का ही बोलबाला है। मस्तिष्क में भी विचारों का अथाह समुद्र दिखाई पड़ता है। जो कुछ हम इन्द्रियों से देख रहे हैं, अनुभव कर रहे हैं- शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श, वह सब हमारे मन तक पहुंच कर चिन्तन को बढ़ाता रहता है। बुद्धि इस आग में अपनी आहुति देती रहती है।
आवश्यक और अनावश्यक दोनों ही प्रकार के चिन्तन से आज व्यक्ति व्यस्त दिखाई पड़ता है। बोझिल जान पड़ता है। पर, चिन्तन छूट भी कैसे सकता है? एक, क्योंकि हमारे पास ज्ञानेन्द्रियां हैं। दो, हमारा मन त्रिगुणी है। तीन, हमारा अध्यात्म शरीर मन, बुद्धि और आत्मा का मिश्रण है।
फिर भी हमें चिन्तन से बाहर निकलने तथा अचिन्तन का कुछ आभास करने के लिए कहा जाता है। वस्तुत: यह एक कठिन कार्य है। अचिन्तन के लिए हमें इन सभी धरातलों से परे जाना पड़ेगा। इसके बिना न सही स्थिति बनेगी, न ही अनुभव होगा। हमें शब्द, रूप, रस, गंध व स्पर्श से होने वाले अनुभवों को देखना पड़ेगा- यह ज्ञान की भूमिका है। जानना पड़ेगा-यह दर्शन की भूमिका है। और, इसी क्रम में मन को भी प्रभावित होने से बचाना पड़ेगा, तब जाकर निर्विचार का क्रम शुरू होगा। आप कुछ देख रहे हैं। यदि देखते ही उसके रूप से मुग्ध हो जाएं, उसकी सुगन्ध से मन मोह में अटक जाए, ध्वनि की मिठास या दर्द में बंध जाएं, तो समझें आप मन के धरातल पर अटक गए। आगे जाने का मार्ग अवरुद्ध हो गया। मन के साथ बुद्धि ने अपना योग किया और आप विषय विशेष में चिन्तनशील हो गए। वहीं रुक गए। हमारे दर्शन का महत्त्व आत्मा को गति देने के लिए है-उसका आकलन, दर्शन और ईश्वर से एकाकार होने का है।
इसके लिए मन से आगे जाना ही पड़ेगा। इसका मार्ग है, मन को तटस्थ बनाने का अभ्यास। इन्द्रियां जो कुछ अनुभव करके मन के पास लाएं, उसमें मन न जुड़े, आप अलग रहकर उसे मात्र जानें या देखें। केवल वस्तुस्थिति का आकलन करें। तब वही विषय कुछ अलग तरह से दिखाई देगा। किसी प्रकार का आवरण आपके चिन्तन पर नहीं आएगा।
सामायिक
जैन परम्परा में सामायिक करने की परम्परा है। सामायिक का अर्थ है- ‘समय में होना’। समय का अर्थ है-आत्मा। सामायिक का अर्थ हुआ-आत्मा में होना, स्वयं में होना। इसमें किसी का ध्यान नहीं किया जाता, केवल अपने अस्तित्व में होना होता है, यही निर्विचार होने की स्थिति है। न ध्यान, न ध्याता, न ध्येय-सब कुछ स्वयं ही। जीवन-क्रम में कोई न कोई विचार हमें घेरे ही रहता है, विचारों का एक द्वन्द्व-सा सदा चलता रहता है। सामायिक में व्यक्ति केवल जानने-देखने का कार्य ही करता है और कुछ नहीं करता।
अचिन्तन की बात सुनने में बड़ी अच्छी लगती है, किन्तु करना सहज नहीं है। इसके लिए भी विचारों के मन्थन और चिन्तन की आवश्यकता होती है। विचारशून्यता तो सम्भव ही नहीं लगती। विचार का प्रवाह इतना तीव्र और इसकी शृंखला इतनी लम्बी होती है कि तांता टूटता ही नहीं। निरन्तर गतिशील रहता है। फिर, कैसे सम्भव होगा अचिन्तन? इसमें भी सन्देह नहीं कि अधिक चिन्तन हितकारी नहीं है। हर कार्य में शक्ति भी क्षीण होती है। शरीर के अनुपात में बुद्धिप्रधान कार्य अधिक शक्ति का उपयोग करते हैं। अधिक चिन्तन से शरीर में भी कई व्याधियां पैदा हो सकती हैं, अत: हमें अचिन्तन के लिए भी समय निकालना चाहिए ताकि जो शक्ति क्षीण होती है, उसका पुनर्भरण हो सके। हमें ध्येय बनाकर उसके साथ चलना है। मन और बुद्धि को प्रशिक्षित करना है। अभ्यास करते-करते एकाग्रता की स्थिति पैदा होगी, आप जानने और देखने की क्षमता प्राप्त कर सकेंगे, तब अचिन्तन की बात स्वत: समझ में आ जाएगी।