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संविधान के प्रति जनता के भरोसे को बचाए रखना होगा

लोकतंत्र में लोक या समाज के भीतर से उपजने वाली लोक-शक्ति ही नियामक होती है। जनप्रतिनिधियों की सेवा भावना और आचरण की शुचिता की इसमें निर्णायक भूमिका है। भारतीय समाज ने अनेक कठिनाइयों को झेलते हुए भी संविधान और लोकतंत्र के प्रति विश्वास जताया है। इस जज्बे को बचाए रखने की जरूरत है।

जयपुरNov 27, 2024 / 09:48 pm

Gyan Chand Patni

गिरीश्वर मिश्र

प्रख्यात मनोविद, विचारक व अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि वर्धा के पूर्व कुलपति

संविधान अंगीकार किए जाने के 75 वर्ष पूर्ण हो गए हैं। विश्व के सबसे विस्तृत और लिखित भारतीय संविधान में मूल सिद्धांतों का प्रतिपादन है और शासन चलाने की पूरी व्यवस्था का विवरण है। दो वर्ष 11 माह 18 दिन तक चली विस्तृत बहस के बीच बने इस ऐतिहासिक दस्तावेज में कुल 22 भाग (अब 25), 395 अनुच्छेद (अब 448) और 8 अनुसूचियां (अब 12) हैं। संविधान में एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य की संकल्पना की गई। नागरिकों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय और अवसर की समानता और बंधुत्व के प्रति प्रतिबद्धता पर जोर दिया गया ताकि व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित रहे। संविधान में समानता, स्वतंत्रता, शोषण के खिलाफ, धार्मिक स्वतंत्रता, सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार, सार्वभौमिक उपचारों की व्यवस्था की गई। सरकार के कार्य का नियंत्रण और संतुलन बनाए रखने की व्यवस्था की गई। अब तक संसद इसमें सौ से अधिक संशोधन पारित कर चुकी है।
संविधान के 42 वें संशोधन अधिनियम-1976 से समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और अखंडता को संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया। साथ ही मौलिक कत्र्तव्य भी जोड़े गए। लोकतंत्र जनता का शासन है जिसमें सिद्धांतत: जनता की केंद्रीय भूमिका होती है और जन-हित सर्वोपरि होता है। इसके विपरीत साम्यवाद, राजतंत्र और सैन्य शासन के विविध रूप अनेक देशों में मिलते हैं जहां स्वतंत्रता पर बड़ा कड़ा पहरा है। लोकतंत्र में जनता से चुने लोगों को शासन संभालने की जिम्मेदारी सौंपी जाती हैं। जिम्मेदारी और पारदर्शिता के साथ शासन, शांति और समानता के सिद्धान्तों के साथ प्रतिबद्धता लोकतंत्र की जान होती है। लोकतंत्र की सफलता के लिए जरूरी है कि जनता से शासन करने के लिए मिली शक्ति की पहचान बनी रहे। सत्ता विकेंद्रित हो और जनता से सलाह-मशविरा भी लगातार होता रहे। इसमें नियमित रूप से जांच और संतुलन की व्यवस्था भी होनी चाहिए। इस प्रसंग में यह अक्सर कहा जाता है कि लोकतांत्रिक शासन के संचालन की दृष्टि से न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका और मीडिया चार प्रमुख आधार-स्तंभ हैं। इन संस्थाओं की स्वतंत्रता और स्वायत्तता अखंड बनी रहनी चाहिए। देश के संविधान में पहला संशोधन पं. जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार में 1951 में हुआ था। भारत के संविधान में करीब 80 संशोधन कांग्रेस के कार्यकाल में ही किए गए। जनता भरोसे के साथ अपने प्रतिनिधि लोकसभा और राज्य की विधानसभा में भेजती है। वह चाहती है कि उसके चुने प्रतिनिधि देश की भलाई के लिए सोचें, कायदे-कानून बनाएं, उसे लागू कराएं ताकि आम आदमी का जीवन सुरक्षित और खुशहाल हो।
विडंबना यह है कि विगत कुछ वर्षों में गतिरोध से संसदीय कार्य की उत्पादकता में बड़ा ह्रास दर्ज हो रहा है और सांसदों के व्यवहार पर प्रश्न खड़े होते रहे हैं। अब विभिन्न जनप्रतिनिधियों की शैक्षिक, आर्थिक और जन सेवा की पृष्ठभूमि के साथ उनके चरित्र को लेकर भी अक्सर प्रश्न उठाए जाते हैं। हमारी संसद लोकतंत्र के वैचारिक शिखर और देश की संप्रभुता को व्यक्त करती है। इसलिए उसकी गरिमा बनाए रखना सबका कत्र्तव्य बनता है। जन प्रतिनिधियों से अपेक्षा होती है कि वे संसद की बैठकों में नियमित भाग लें और आम जनता की ईमानदारी से नुमाइंदगी करें। वास्तविकता इसके विपरीत है। विचार और कर्म दोनों ही स्तरों पर विसंगति का खतरा तेजी से बढ़ रहा है। नैतिकता और स्वाभाविक आचरण को छोड़ लोग स्वार्थ और लोभ के वश में गलत काम कर रहे हैं। वे सत्ता पाकर स्वच्छंदता को अधिकार मान लेते हैं। अपने और अपने परिवार को समृद्ध बनाने में लग जाना आम बात हो रही है। अधिकतर नेता यह भूलने लगे कि अपने अहंकार का त्याग करके और अन्य से जुड़ कर ही लोक-कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है। संसदीय लोकतंत्र की राह पर चलते हुए देश ने अब तक कई पड़ाव पार किए हैं। विभिन्न विचारधाराओं के दलों को सरकार बनाने का अवसर मिला।
अभिजात्य वर्ग का वर्चस्व खंडित हो रहा है। समाज के मध्य वर्ग और निचले वर्गों के लोगों को राजनीति में भाग लेने का अवसर मिल रहा है पर नए संकट भी खड़े हो रहे हैं। धन-बल और बाहु-बल प्रचंड होता जा रहा है। साथ ही कदाचार में लिप्त और आपराधिक प्रवृत्ति वालों की हैसियत जिस तरह राजनीतिक हलकों में बढ़ रही है, वह चिंता का विषय है। राष्ट्रीय हितों की रक्षा, महिला सशक्तीकरण, आदिवासी समुदायों के उत्थान, समाज के अंतिम जन को समर्थ बनाने, व्यापार-व्यवसाय की सुविधा बढ़ाने, शिक्षा की गुणवत्ता बनाने और भ्रष्टाचार दूर करने के लिए संघर्ष जारी है। लोकतंत्र में लोक या समाज के भीतर से उपजने वाली लोक-शक्ति ही नियामक होती है। जनप्रतिनिधियों की सेवा भावना और आचरण की शुचिता की इसमें निर्णायक भूमिका है। भारतीय समाज ने अनेक कठिनाइयों को झेलते हुए भी संविधान और लोकतंत्र के प्रति विश्वास जताया है। इस जज्बे को बचाए रखने की जरूरत है।

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