समाज व राष्ट्र की दशा-दिशा तय करती है मजबूत न्याय प्रणाली
विधिक परिभाषा के अनुसार हत्या, बलात्कार, पॉक्सो अधिनियम में दर्ज मामले और अन्य संगीन जुर्म अशमनीय अपराध हैं। इसका तात्पर्य है कि दोनों पक्ष परस्पर सुलह व संधि के आधार पर प्रकरण का निपटारा स्वयं नहीं कर सकते। ऐसे मामलों में तथ्यों के आधार पर प्रकरण का अनुशीलन व निर्णय न्यायालय को ही करना चाहिए।
मिताली गर्ग
अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक, राज्य महिला आयोग, राजस्थान
गंभीर अपराधों के मामलों में भी दोनों पक्षों के मध्य परस्पर समझौतों में वृद्धि का आंकड़ा चौंकाने वाला है। बलात्कार जैसे घृणित अपराधों, विशेषकर नाबालिगों के खिलाफ कारित अपराधों में, प्रकरण पंजीबद्ध होने से आरोपी को सजा होने तक आपसी समझौतों के कारण अनेक उतार-चढ़ाव आते हैं। इससे प्रकरण की विश्वसनीयता एवं पीडि़त पक्ष द्वारा पेश तथ्यों पर भी सवाल लगता है।
विधिक परिभाषा के अनुसार हत्या, बलात्कार, पॉक्सो अधिनियम में दर्ज मामले और अन्य संगीन जुर्म अशमनीय अपराध हैं। इसका तात्पर्य है कि दोनों पक्ष परस्पर सुलह व संधि के आधार पर प्रकरण का निपटारा स्वयं नहीं कर सकते। ऐसे मामलों में तथ्यों के आधार पर प्रकरण का अनुशीलन व निर्णय न्यायालय को ही करना चाहिए। ऐसे प्रकरणों को कोर्ट के बाहर सुलझानेे के कई सामाजिक व विधिक मायने हैं। ऐसे प्रकरणों में परस्पर समझौतों का अध्ययन किया जाए तो आरोपी धनबल, बाहुबल तथा जान-माल के खतरे का दबाव बनाकर पीडि़ता एवं उसके परिजनों को समझौते के लिए विवश कर सकता है। यह गलत है। ऐसी बनावटी और खोखली व्यवस्था समाज व आमजन को वास्तविक न्याय प्रदान करने में विफल साबित होती है। साथ ही यदि किसी लालच या स्वार्थ के कारण पीडि़त पक्ष आरोपी पक्ष से समझौता करता है या मिथ्या प्रकरण के जरिए आरोपी पर दबाव बनाया जाता है, तो यह कानून का दुरुपयोग है। उदाहरणार्थ हनी ट्रैप जैसे घृणित प्रकरण सम्पूर्ण समाज ही नहीं बल्कि सकल मानवता को भी शर्मसार करते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में रामजीलाल बैरवा ए.एन.आर. बनाम राजस्थान राज्य के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय का निर्णय निश्चित ही सम्पूर्ण न्याय तंत्र के लिए पथ प्रदर्शक एवं मील के पत्थर के समान है। उक्त प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने गंभीर अपराधों जैसे पॉक्सो प्रकरणों में समझौते के आधार पर दर्ज प्राथमिकी को खारिज या खत्म नहीं किए जाने का निर्णय पारित किया है। इसमें कोई संशय नहीं है कि ऐसे गंभीर प्रकरणों का दुष्प्रभाव सम्पूर्ण समाज पर पड़ता है। ये अपराध किसी एक व्यक्ति नहीं बल्कि सम्पूर्ण समाज के खिलाफ होते हैं। ऐसे अपराधों के जरिए सामाजिक समरसता व ताने-बाने पर कठोर प्रहार कर मानवीय मूल्यों को कलंकित किया जाता है। ऐसे में यह सख्त व स्पष्ट संदेश देना आवश्यक है कि भारतीय न्याय प्रणाली किसी के हाथ की कठपुतली नहीं है। हर अपराधी को यह बोध होना चाहिए कि संगीन वारदात का अंजाम कानून प्रदत्त दण्ड है जिसे वह किसी धनबल या बाहुबल से प्रभावित नहीं कर सकता। साथ ही स्वार्थ और लालच के कारण दबाव बनाने की गरज से मिथ्या प्रकरण दर्ज कराने वाले भी कानून के कटघरे से नहीं बच सकते। न्यायिक दृष्टि से ऐसे समझौतों का कोई विधिक महत्व नहीं है। ऐसे प्रकरणों की जांच महज मेरिट से ही होगी।
स्पष्ट है कि अशमनीय संगीन अपराधों में समझौता करना, कराना एवं स्वीकार करना न्यायिक मूल्यों व आमजन के हितों के विपरीत है। गंभीर अपराधों के मामलों को निपटाने वाली मजबूत न्याय प्रणाली वास्तव में भावी समाज व राष्ट्र की दशा-दिशा निर्धारित करती है। सुरक्षित और सुदृढ़ समाज की नींव सशक्त न्याय व्यवस्था है। ऐसी न्याय व्यवस्था की स्थापना, संरक्षण एवं सफल संचालन समूचे समाज और देश के हित में है।
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