स्वयम्भू आदि पंचपर्वों को ही भू:, भुव:, स्व:, मह:, जन:, तप: और सत्यम्-इन सात लोकों में विभाजित किया गया है। इनमें भू:, स्व:, जन: और सत्य लोक मण्डल रूप में स्थित हैं। भुव:, मह: तथा तप: लोक अन्तरिक्ष कहे जाते हैं, ये तीनों अन्तरिक्ष लोक प्राणों के संचालन, संगठन और विघटन की प्रयोगशाला हैं।
स्वयम्भू आदि पंचपर्वों को ही भू:, भुव:, स्व:, मह:, जन:, तप: और सत्यम्-इन सात लोकों में विभाजित किया गया है। इनमें भू:, स्व:, जन: और सत्य लोक मण्डल रूप में स्थित हैं। भुव:, मह: तथा तप: लोक अन्तरिक्ष कहे जाते हैं, ये तीनों अन्तरिक्ष लोक प्राणों के संचालन, संगठन और विघटन की प्रयोगशाला हैं। अर्थात् परिवर्तन की भूमिकाएं अन्तरिक्ष में बनती हैं और मण्डल तक पहुंचते-पहुंचते एक निश्चित स्वरूप तय हो जाता है। सत्य लोक में ब्रह्म के साथ माया की अविकृत अवस्था है। परिवर्तन जन: लोक में होते हैं, जहां अव्यय पुरुष की रचना होती है। स्वयम्भू तथा परमेष्ठी लोक में दाम्पत्य भाव है। सत्य-लोक ऋषि-प्राणों की भूमि है। यह शुद्ध ज्ञान का लोक है। जन: पितृ-प्राणों का सोम-लोक है। स्वधा शक्ति इस लोक की संचालिका शक्ति है। ऋषि और पितृ प्राणों का ब्रह्मï और माया के साथ योग ही अव्यय पुरुष का निर्माण करता है। यह अव्यय पुरुष नियत स्थान में रहने के अभाव में अशरीरी है। इसकी कोई जगह ही नहीं है। जहां पैदा हो रहा है उसी आकाश में भ्रमण कर रहा है।