पृथ्वी के प्राण पशु कहलाते हैं। अत: हम पार्थिव प्राणी भी पशु संज्ञा वाले होते हैं। वरुण-पाश से बंधे प्राणी पशु कहे जाते हैं। वरुण के पंच पाश—अविद्या-अस्मिता-राग-द्वेष-अभिनिवेश हैं और इनका ही दूसरा परिचय—अविद्या है। सृष्टि के आलम्बन- अव्यय पुरुष की पांच कलाएं हैं—आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण, वाक्। ये मन ही ईश्वरीय मन है। सम्पूर्ण सृष्टि का यही एक मन है। इस मन की दो दिशाएं हैं—ऊर्ध्वगामी-अधोगामी। आनन्द-विज्ञान-मन ऊर्ध्वगामी-मुक्ति की ओर उठने वाला भाग है। इसको मूल में विद्या के नाम से जाना जाता है। मन-प्राण-वाक् नीचे की ओर जाने वाला- सृष्टिसाक्षी-अविद्या भाग है। पार्थिव प्राणियों के लिए कहा जाता है (मनुष्य विशेष के लिए)—जन्मना जायते शूद्र: संस्कारात् द्विज उच्यते। हम सब अविद्या के कारण ही पैदा होते हैं।
दैहिक पिता आग्नेय रूप है, माता सौम्या होती है। आत्मा अन्न से पिता के शरीर में बीज रूप में प्रवेश करता है। वहां से माता की देह में स्थानान्तरित हो जाता है। आकृति ग्रहण करके बाहर निकल जाता है। माता-पिता की प्रजनन की भूमिका यहां पूर्ण हो जाती है। आगे शिशु स्वतंत्र आत्मा के रूप में जीने को तैयार है। उसे पोषण और सुरक्षा चाहिए। प्राणी कोई भी हो, स्वरूप यही रहता है। मनुष्य के अतिरिक्त सबकी सन्तानें पूर्ण रूप से स्वतंत्र जीती हैं। कौन पशु-पक्षी अपनी सन्तान को सिखाता है कि वह पशु है अथवा पक्षी है? कौन सन्तान को उसका नाम, माता-पिता का नाम, उसकी जाति या लिंग का परिचय कराता है! पालतू पशु-पक्षियों के सिवाय किसकी सन्तान बड़ी होकर साथ जीती हैं। न कोई परिवार, न समाज, न ही देश। न सर्दी-गर्मी-बरसात में रखवाला। न ही शिकारियों से सुरक्षा। सबकुछ प्रकृति के हवाले। उसकी मर्जी, बस!
पशु-पक्षी अथवा अन्य प्राणी जहां प्रकृति के साम्राज्य में जीते हैं, वहीं मनुष्य अपनी मर्जी से जीता है। ये मर्जी ही माया के खेल का मैदान बन जाती है।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। (गीता 18.61) माया जीव के साथ जुड़ी रहती है। कारण शरीर में रहती है। पिछले जन्मों के कर्मों का लेखा-जोखा, आत्मा में जीव का वर्ण और आयु आदि इसी में रहते हैं। मन में इच्छा जागने का कारण यहीं से उठता है। प्राण (सूक्ष्म शरीर) के माध्यम से स्थूल शरीर को गतिमान करता है। सूक्ष्म शरीर प्रकृति का आश्रय होने से कर्म स्वत: ही स्वभाव जनित हो जाता है— सात्विक, राजसिक या तमोगुणी। शरीर-मन-बुद्धि आत्मा जन्म से ही त्रिगुणी होते हैं।
यह त्रिगुण भाव जीव में ही होता है। प्रश्न उठता है कि ईश्वर भी जीव के समान गुणात्मक विश्व में प्रविष्ट है—तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत। गीता भी इसका प्रमाण है—ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। ईश्वरांश जीव ही गुणों से आबद्ध होता है ईश्वर नहीं, क्योेंकि जीवसृष्टि का मूल आधार सूर्य है। वह हमारा आत्मा है, पिता है—सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च। यहीं से हमारी यात्रा शुरू होती है। हमारा आत्मा षोडशी पुरुष का अव्यय मन है। सूर्य, चन्द्रमा व पृथ्वी के दर्शपौर्णमासात्मक* परिभ्रमण से परमेष्ठी (महान) में सत्व, रज, तम, अहंकृति, आकृति व प्रकृति इन छह भावों की उत्पत्ति होती हैै। इन छह भावों से समन्वित जीव ही पंचाग्नि के माध्यम से स्थूल देह धारण करता है। सूर्य से अहंकृति, पृथ्वी से आकृति और चन्द्रमा से प्रकृति भाव जुड़ता है। मानव सहित सभी प्राणियों पर चन्द्रमा का प्रभाव अत्यधिक रहता है। चन्द्रमा सोम है। स्नेह गुणों से युक्त है। अत: चन्द्रमा माता की भूमिका में रहता है। अन्न के माध्यम से हमारा मन तैयार करता है।
मन में त्रिगुण के अनुरूप ही इच्छाएं पैदा हो जाती हैं। त्रिगुण का प्रभाव चूंकि प्रत्येक जीव के कर्म में दिखाई पड़ता है, अत: कहा जाता है कि प्रकृति ही जीवन को चलाती है। प्रकृति का प्रभाव इन्द्रियों पर पड़ने से सभी विषयों के बारे में निर्णय बदल जाता है। प्रकृति की भूमिका जीवन को जटिल बना देती है। पंचभूतों से निर्मित देह मेें पृथ्वी, चन्द्रमा, सूर्य, परमेष्ठी व स्वयंभू के आधार पर क्रमश: अन्नाद प्रकृति, अन्न प्रकृति, वाक् प्रकृति, अप् प्रकृति तथा प्राण प्रकृति कार्य करती है। ये ही जीव के जाति, आयु तथा भोग की मूलप्रतिष्ठा बनते हैं। चौरासी लाख योनियों के निर्माण में इस प्रकृति की मूल भूमिका है।
प्रकृति ही फलेच्छा के साथ कर्म करने को प्रेरित करती है। फल प्राप्ति ही पुनर्जन्म और भोग योनियों के निर्माण का मुख्य सूत्र है। यही ब्रह्म का विवर्त है। कृष्ण कह रहे हैं कि प्रकृति में स्थित पुरुष ही प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है। इन गुणों का संग ही जीवात्मा के विविध योनियों में जन्म लेने का कारण है—
पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुङ् क्ते प्रकृतिजान्गुणान्। कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।। (गीता 13.21) न केवल हमारा स्वभाव त्रिगुणी होता है, बल्कि हमारे सम्पूर्ण कार्यकलाप भी त्रिगुणी हो जाते हैं। यज्ञ, दान, तप, त्याग, कर्ता, कर्म, ज्ञान, अन्न, बुद्धि, मन, धृति आदि सभी कुछ त्रिगुण से आवरित रहते हैं। कृष्ण तो यहां तक कह गए कि—त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। क्योंकि इन तीनों गुणों के कारण ही मन चंचल रहता है, स्थिर नहीं हो पाता—असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् (6.35)।
मन को वश में करने के लिए इन्द्रियों पर संयम आवश्यक है। इन्द्रियां और मन अपने प्राकृतिक स्वरूप में स्वच्छ ही होते हैं किन्तु राग-द्वेष के कारण चंचलता का भाव मन में पैदा होता है। उसकी कारक हमारी वृत्तियां होती है। अत: अर्जुन कह रहे हैं कि हे कृष्ण! यह मन बड़ा ही चंचल है—चंचलं हि मन: कृष्ण। मन का निग्रह अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि यही हमारे बन्धन और मुक्ति का हेतु बनता है। मन का स्वरूप ही व्यक्तित्व कहलाता है।
मन का स्वरूप अनन्त है—अनन्तं वै मन:। अत: मन को समझना और उसमें सकारात्मक भाव बनाए रखना ही उत्थान का मार्ग है। मन का विषय तो शान्ति है। बुद्धि और इन्द्रियों के साथ जुड़ा हुआ मन अशान्त रहता है। इन्द्रिय सुख व्यक्ति को बाहरी विषयों में इतना लिप्त रखता है कि मन की आवाज सुन पाना उसके लिए लगभग असम्भव होता है। इन्द्रियों के अनुभव ही मन पर अंकित रहते हैं और उन्हीं की कल्पना में मन लगा रहता है। मन में एक साथ अनेक विषयों का चलते रहना ही अशान्ति का कारण है। मन, भावनाओं और संवेदनाओं का केन्द्र है। इच्छा अथवा कामना का उत्पत्ति स्थान है। इन्द्रियों के माध्यम से मन जगत-व्यवहार करता है। दूसरी ओर यह आत्मिक धरातल से जुड़ा है। जब इन्द्रियों से जुड़ता है तब इसकी गति बाहर की ओर होती है। मन में आसक्ति पैदा होती है। भीतर का क्षेत्र विज्ञानभाव या प्रज्ञा से जुड़ा रहता है। मन रूपी इस छठी इन्द्रिय का उपयोग ही मानव को सृष्टि के अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ प्रमाणित करता है।
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com