scriptआज के लाक्षागृह | Patrika Group Editor In Chief Gulab Kothari Special Article 14 June 2024 Today's Lakhshagriha | Patrika News
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आज के लाक्षागृह

समाचार- ‘कुवैत की इमारत बनी लाक्षागृह-
42 भारतीय जिंदा जलकर मरेे’

जयपुरJun 14, 2024 / 10:59 am

Gulab Kothari

गुलाब कोठारी

कुवैत के मंगफ शहर में बुधवार तड़के एक बहुमंजिला इमारत में भीषण आग लगने से पचास लोगों की मौत हो गई। इनकी उम्र 20-50 साल की थी। लगभग 49 लोग झुलस गए। रसोईघर के सिलेण्डर फटने से यह आग लगी। आग पर काबू पाने के लिए दमकलकर्मियों को काफी कठिनाई हुई। केन्द्र सरकार ने एक मंत्री को कुवैत भेजने का निर्णय किया। आग लग चुकी, लोग मर चुके। कहीं के भी थे- इंसान थे। कारणों की समीक्षा भी होगी। पहले भी होती रही है। समीक्षा करने से क्या होगा- आग लगना बंद हो जाएगा? मुझे नहीं मालूम कि पाठकों को दिल्ली की सिद्धार्थ होटल या अमरीका की शिकागो होटल की आग लगने की घटनाएं याद हैं। आए दिन घरों में इस प्रकार के अग्नि-काण्ड होते हैं- लोग/महिलाएं विशेषतौर पर कपड़ों में आग लगने से आहत होती हैं। ये मौतें विकास के उपहार हैं। बिना सोचे-विचारे दूसरे की नकल करने का परिणाम है।
आज हम भारतीय संस्कृति की अगरबत्ती जलाकर पूजा करने लगे हैं। शिक्षा और मीडिया ने जिस प्रकार विदेशी जीवनशैली और ग्लेमर को व्यापारिक हितों के कारण प्राथमिकता दी है, जनता को दिवास्वप्न दिखाए, नए औद्योगिक उत्पादों का जीवन में प्रवेश कराया है, वहीं आज कैंसर जैसा असुर खड़ा हो गया। अब इस पर पार पाना नितांत असंभव हो गया है। अग्निशमन के प्रयास भी खानापूर्ति बनकर रह गए हैं। दमकलों के पहुंचने से पहले सब कुछ स्वाह/राख हो चुका होता है। सौ साल पहले के इतिहास में इस प्रकार की दुर्घटनाएं रिकॉर्ड पर नहीं हैं।
हम बहुत नाचे थे जब 50-60 साल पहले इस देश में टेरीलीन के कपड़ों ने प्रवेश किया। ना धोने की चिंता, न प्रेस की। फटने का तो नाम ही नहीं था। मैंने भी पहला सिंथेटिक बुश-शर्ट वर्ष 1964 में पांच रुपए में खरीदा था। पांव जमीन पर नहीं थे। प्रकृति के प्रत्येक सुरक्षा-चक्र को इस ‘कार्बन’ रूपी दैत्य ने ध्वस्त कर डाला। राख की पूर्व ज्वलनशील स्थिति कार्बन है। अग्नि का निर्माण वायु से होता है। वायु का इस ऋतु में प्रकोप रेगिस्तान में सर्वाधिक होता है। अग्नि से जल उत्पन्न होता है। इसी आग्नेय तत्व -कार्बन- से अधिकांश सिंथेटिक वस्तुएं बनती हैं। शुरुआती काल में कपड़ा ही सर्वाधिक बनता था। सस्ती एवं सुविधाजनक होने से साड़ियों का चलन बहुत तेजी से बढ़ा। इसी कारण आग की सर्वाधिक शिकार रसोईघर से जुड़ीं महिलाएं हुईं। कपड़ा जलते ही चमड़ी से चिपक जाता है। इसके घावों को भरने में समय भी लगता है और पीड़ादायक भी होते हैं।
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दोगे तो ही मिलेगा

कपड़े के उद्योग बहुत तेजी से फले-फूले। नित नए-नए आयाम प्रकट होने लगे। हर घर में आज पर्दों का रिवाज बढ़ा है। सोफे आदि की भरमार में सारा सामान कार्बनयुक्त है। चूंकि ये धागे टूटते भी नहीं और सूत/रेशम की तुलना में महीन होते हैं, अत: तेज गति की मशीनोें का उपयोग भी हो जाता है। 

प्रकृति विरोधी फैशन

आज तो फ्लोर, दीवारें, वॉलपेपर और यहां तक कि मकानों में लगने वाले पैंट भी सिंथेटिक हो गए। आप इनकी उतरती परतों पर अग्नि को स्पर्श करा कर देखें तो नीचे से ऊपर तक समूचा पेंट चपेट में आ जाएगा।
अगला नंबर आया लकड़ी का। आज लकड़ी का अधिकांश फर्नीचर सिंथेटिक हो चला है। सनमाइका ने सबको ढक दिया है। क्या फिनिशिंग आती है-वाह! कालीन सारे के सारे सिंथेटिक। जिस सूत और ऊन को जलाने में बड़ा वक्त लगता था, वह तो जीवन से बाहर हो गया। मैंटेन नहीं होता। पिछले माह, मैं एक मूर्ति खरीदकर लाया। पत्थर भी सिंथेटिक था। अब क्या शेष रह गया? जो कुछ सिंथेटिक है, अतिज्वलनशील हैै। कुछ मिनटों में सब राख हो जाएगा। सच तो यह है कि आज सारे मकान (आधुनिक) लाक्षागृह बनते जा रहे हैं। आग लगने के बाद इमारतों में लगे सरिए भी गर्म होकर अपनी भूमिका निभाते हैं। तापमान यदि बहुत है तो इमारत झुक भी सकती है।
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परिवारों में फंसे क्षत्रप

आज विज्ञान ने हमारे अन्न को भी सिंथेटिक बना दिया है। डिब्बाबंद खाने के पदार्थों में रंग, प्रिजर्वेटर और अब तो चावल जैसे अनाज भी सिंथेटिक आ गए। शरीर में क्या करेंगे पता नहीं। पिछले 50 बरसों से हम सिंथेटिक दूध भी पी रहे हैं।
खैर! कहना यही है कि विकास और फैशन/नकल के नाम पर हम आधुनिक दिखाई देना चाहते हैं। समय और संसाधन भी मान लिया बचता होगा। इन सबकी कीमत भी तो हम ही चुकाते हैं। दुर्घटना रोज नहीं होती किन्तु इस प्रकार की घटनाएं सब-कुछ स्वाह कर जाती है। प्रकृति के विपरीत जीना भी फैशन हो गया। सारी वस्तुएं मौसम के भी विरुद्ध और जीवन के भी विरुद्ध। भारत जैसे देश में, ग्रीष्म ऋतु में आग लगना स्वाभाविक है। विदेशों में मौसम ठंडा होने से यह खतरा नगण्य है। दमकल भी पहुंचते-पहुंचते दम तोड़ देती है- हमारे यहां तो।

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