scriptशरीर ही ब्रह्माण्ड: पिता ही परमपिता | Editor In Chief Gulab Kothari Special Article 23rd November 2024 Shahri Hi Brahmand Father is the Supreme Father | Patrika News
ओपिनियन

शरीर ही ब्रह्माण्ड: पिता ही परमपिता

पुत्र और पिता दोनों ही सृष्टि के अंग हैं। किसी का भी एकात्म रूप नहीं है। पुत्र यदि फल है तो पिता बीज है। माता माली है। आप फल को देखकर बीज की ओर देखें तो बीज का यात्रा-वृतान्त पढ़ सकते हैं। बीज से शुरू करके फल तक की यात्रा देखें तो बीज का भविष्य पढ़ सकते हैं।

जयपुरNov 23, 2024 / 07:09 pm

Gulab Kothari

आत्मा चन्द्रमा से चलकर बादलों में बसता है। वर्षा के साथ पृथ्वी पर बरसता है। पृथ्वी के गर्भ में जाता है। औषधि और वनस्पति के रूप में पैदा होता है। इसी जल से किसान अन्न (ब्रह्म) का उत्पादन करता है। आत्मा पृथ्वी के गर्भ से अन्न में प्रवेश करता है। अन्न की स्थूल देह आत्मा का शरीर बन जाता है। अत: अन्न के माध्यम से प्राणी शरीर में प्रवेश करता है तथा समस्त शरीर में व्याप्त हो जाता है। अन्न वैश्वानर अग्नि में पककर शरीर के धातुओं का निर्माण करता है। यह शरीर व्यक्ति की आकृति का पोषण करता है। शरीर से शरीर का निर्माण होता है, आत्मा स्वतंत्र है। वह आत्म रूप में ही अगले शरीर में चला जाता है।
आत्मा निराकार है। इसे प्रतिष्ठा के लिए आधार चाहिए। अन्न के केन्द्र में प्रवाहित रहता है। अन्न वैश्वानर में लीन होकर रस में बदल जाता है। ‘रसो वै स:’-वही ब्रह्म का कवच बन जाता है, रस और ब्रह्म पर्याय हैं। रस से बनता है रक्त। पुरुष शरीर में ब्रह्म बीज रूप में आगे धातुओं के साथ बढ़ता हुआ शुक्र रूप लेता है। शुक्र इसका शरीर बनता है। शुक्र एक तरल द्रव्य है, जिसमें शुक्राणु रहते हैं। इस शुक्राणु का भी अपना बीज होता है। आत्मा सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है। प्रजनन यज्ञ में आत्मा, आकृति का प्रत्येक अंश बीज में आ जाता है। द्रव्य स्नेहन युक्त जल है, आत्मा सोम है, शर्करा है। वायु के द्वारा जल के माध्यम से सोम जाकर शोणित-अग्नि में आहुत होता है। जल बाहर रह जाता है, अग्नि का शत्रु है। स्नेहन अग्नि प्रज्ज्वलित करता है।
यह भी पढ़ें

शरीर ही ब्रह्माण्ड: शरीर ही ब्रह्माण्ड: बीज

स्त्री शरीर में शुक्र नहीं बनता। रस के बाद रक्त का एक भाग गर्भाशय को जाता है। यहां शोणित में स्त्री की महिला-पीढ़ियों के अंश, शरीर के कुछ अंशों के तत्त्व तथा शिशु शरीर के निर्माण सामग्री का संग्रहण होता है। स्त्रीभ्रूण तैयार है। इसी में पुंभ्रूण आहुत होकर बुद्बुद् पैदा करता है। स्वयं केन्द्रस्थ हो जाता है। यही कललादि बनता हुआ स्थूल शरीर का रूप ले लेता है। पिता से आया ब्रह्म (बीज) माता के गर्भ में पुत्र का/पुत्री का शरीर धारण करता है। ‘पिता वै जायते पुत्र:’। पिता ही पुत्र बन जाता है। शरीर बदल जाता है, सृष्टि आगे बढ़ जाती है। प्रकृति ने पिता को ही पुत्र बना दिया इसी प्रकार तो पिता को भी दादा का पुत्र बनाया था।
पुत्र अपत्य कहलाता है। पिता से छिटककर अलग होता है। पिता के वंश को बढ़ाता है। पुत्र ही पिता को पितृ (पितृ प्राण) ऋण से मुक्त कराता है। उसी पर पिता का ऋण होता है। यास्काचार्य लिखते हैं- रेक्ण इति धन-नाम। मरे हुए व्यक्ति का धन अलग हो जाता है। अपत्य शेष रह जाता है- शेष इति अपत्य-नाम। पुत्र शरीर संसार के लिए धन है, पुत्रात्मा स्वयं परमात्मा है। पिता को ही पिता-परमेश्वर कहा जाता है। आत्मा एक ही तो है। प्रकृति ही जब परमात्मा को किसी आकृति में बांधती है तो वह उस योनि का पिता कहलाने लगता है।
यह भी पढ़ें

शरीर ही ब्रह्माण्ड: कन्यादान : वर में आते श्वसुर के प्राण

शतपथ ब्राह्मण में पुत्र के लिए आशीर्वचन लिखे हैं- (शत. 14.9.4.26) अंगादगांदात्संभवसि हृदयादधियाजते। आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरद: शतम् ‘हे सन्तान! तू प्रत्येक अंग से पैदा होती है। हृदय (ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र अक्षर प्राण) से पैदा हुई है। निश्चय ही तू मेरा अपना आत्मा ही पुत्र रूप से उपस्थित है। सौ वर्ष तक जीता रह।’
क्रमश:
gulabkothari@epatrika.com

Hindi News / Prime / Opinion / शरीर ही ब्रह्माण्ड: पिता ही परमपिता

ट्रेंडिंग वीडियो