इससे भी शर्मनाक तथ्य यह है कि यह ज्यादती ऐसे युवक के साथ हुई जो खुद अपनी पीड़ा किसी को कहने की स्थिति में नहीं था। यह बात और है कि श्मशान घाट पर चिता से जिंदा लौटे मूक-बधिर युवक का पन्द्रह घंटे के प्रयासों के बाद भी जीवन नहीं बचाया जा सका। राजस्थान में सरकार ने मृत देह सम्मान कानून तो बनाया है लेकिन जीवित व्यक्ति से खिलवाड़ करने का यह कृत्य तो माफी के योग्य कतई नहीं कहा जा सकता।
बगड़ के जिस संस्थान में यह निराश्रित युवक रह रहा था वहां तबीयत बिगड़ने पर युवक को अस्पताल पहुंचाने का दायित्व संस्थान ने बखूबी निभाया। हैरत इस बात की कि पहले एक लापरवाह चिकित्सक ने इस युवक को मृत घोषित कर दिया तो दूसरे ने कागजों में ही पोस्टमार्टम कर युवक को शव के रूप में संस्थान को सौंप दिया। पोस्टमार्टम के अपने नियम-कायदे होते हैं। बाकायदा चीर-फाड़ होती है।
लेकिन बिना चीर—फाड़ के ही रिपोर्ट तक बना दी गई और मौत का कारण तक बता दिया गया। दुर्भाग्यवश चिता से लौटने के बाद यह युवक जीवित नहीं रह पाया, लेकिन अस्पताल में अव्यवस्था और लापरवाही इस हद तक पहुंच जाएगी इसका भला किसको अनुमान होगा। मृत बता दिए युवक में चिता पर लिटाने के दौरान हलचल नहीं होती तो यह युवक को जिंदा ही जला देने का मामला था। ऐसा हो जाता तो शायद डॉक्टरों के इस अक्षम्य अपराध की बात सामने नहीं आती।
उपचार के चिकित्सकीय लापरवाही होती है तो समूचे तंत्र पर सवाल उठना लाजिमी है। कहीं अस्पताल में भर्ती मरीजों के शरीर को चूहे कुतरने की खबरें आती हैं तो कहीं अस्पताल के दरवाजे पर ही प्रसव होने की। प्रदेश में बड़ी संख्या में दानदाता आगे आकर सरकारी अस्पतालों के लिए भवन बनाने के साथ-साथ संसाधन जुटाने का काम करते हैं। झुंझुनूं का यह अस्पताल भी ऐसे ही दानदाता की देन है।
दानदाताओं की अपने बनाए अस्पताल में सरकार से बेहतर चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराने की उम्मीदें रहती हैं। इस प्रकरण में हाईकोर्ट ने भी प्रसंज्ञान लेकर सरकार को तलब किया है। लेकिन ऐसी घटनाएं फिर से नहीं दोहराई जाए यह तब ही संभव हो सकेगा जब इस लापरवाही के लिए सजा की नजीर भी बनकर सामने आए।