दुनिया को लेकर अमरीकी नजरिया देखें तो बाइडन का यह दावा कि अमरीका ने 20 साल चले युद्ध में अपने लक्ष्य हासिल कर लिए, पूरी तरह एक व्यक्तिपरक मामला है। बाकी दुनिया का नजरिया न तो ऐसा है और न ही ऐसा हो सकता है। बाइडन का दावा, ‘अफगानिस्तान में युद्ध कई पीढिय़ों तक चलेगा, ऐसा कभी नहीं सोचा गया था,’ सही है क्योंकि 11 सितंबर की घटना, जिसने करीब 3000 जानें लीं और अमरीका को हिला कर रख दिया, के बाद यह युद्ध अल्पकाल के लिए ही छेड़ा गया था। अनुमान था कि ओसामा बिन-लादेन के आतंकी नेटवर्क अल-कायदा को हफ्तों न सही तो कुछ महीनों में तबाह कर दिया जाएगा। अमरीका आतंक के खिलाफ जंग जीतेगा और अफगानिस्तान में लोकतंत्र और शांति की बहाली होगी। दुनिया में हर युद्ध से पहले अनुमान ऐसे ही होते हैं, लेकिन युद्ध कभी अनुमान के मुताबिक खत्म नहीं होते।
अफगानिस्तान में आतंक के खिलाफ जंग के उतार-चढ़ाव देखने वाले भले ही यह जानते हों कि प्रतिकार करना अमरीका का अधिकार था, लेकिन बाइडन के यह दावा – ‘हम स्पष्ट लक्ष्य के साथ युद्ध के मैदान में उतरे थे। हमने लक्ष्य हासिल कर लिया। बिन-लादेन मारा गया और इराक में, अफगानिस्तान में अल-कायदा को मुंह की खानी पड़ी। और अब इस अंतहीन युद्ध का अंत करने का समय आ गया है’ – पूरी तरह उचित नहीं कहा जा सकता। कड़वी सच्चाई यह है कि यह जंग खत्म होने वाली नहीं है, तालिबान सक्रिय है, बल्कि कहना चाहिए कि अफगानिस्तान में अति सक्रिय है, और एक बार ऐसी स्थिति पैदा होने पर जिसमें उसके सामने कोई सैन्य प्रतिरोध मौजूद नहीं होगा, तालिबान फिर से देश पर नियंत्रण हासिल कर लेगा। अफगानिस्तान सरकार और इसके तीन लाख सैनिक ऐसी कार्यप्रणाली विकसित नहीं कर पाए हैं जिसमें वे तालिबान से लड़ सकें या उसका खात्मा कर सकें। तालिबान की ताकत में न सिर्फ हथियार, अन्य सैन्य मशीनरी और अफगानिस्तान के आधे से अधिक भू-भाग का नियंत्रण है, इस ताकत में अंतरराष्ट्रीय ड्रग रैकेट भी शामिल है, जिसका आकार और बाजार बहुत बड़ा रूप ले चुका है।
कई मायनों में तालिबान को अफगानिस्तान सरकार में शामिल भ्रष्ट अफसरों का समर्थन भी हासिल है। अमरीका के नजरिए से उस युद्ध की समाप्ति की घोषणा आसान है जो उसने अक्टूबर 2001 में छेड़ा था, पर सवाल यह है कि जो युद्ध हकीकत में अभी भी जारी है, क्या अमरीका उस के नतीजों से छुटकारा पा सकेगा? कहा जा सकता है कि अफगानिस्तान की स्थिति बद से बदतर हो जाएगी। उसकी जमीन पर जारी वास्तविक और मनोवैज्ञानिक युद्ध का कोई अंत नहीं है। अफगान लोगों की स्थिति क्या होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है – उनका अपनी सरकार में विश्वास नहीं है, वे उसे भरोसे लायक नहीं मानते जिसकी वजह हर स्तर पर अक्षमता और भ्रष्टाचार का बोलबाला है। इसके अलावा ड्रग माफियाओं सैन्य ताकतों का प्रभाव भी है। अफगानिस्तान 1979 से ही युद्धभूमि बना हुआ है, जब शीतयुद्ध चरम पर था और सोवियत संघ की सेनाएं देश में घुसी थीं। जाहिर है ऐसी जमीन छोड़कर अमरीका को जाना ही था, पर असल मुद्दा यह है कि ऐसा वह खुद के भ्रम के वशीभूत होकर कर रहा है। डॉनल्ड ट्रंप से पहले के युग में विश्व व्यवस्था में अमरीका की भूमिका फिर से हासिल करने के विचार की यह हार है।
(लेखक दक्षिण एशियाई कूटनीतिक मामलों के जानकार हैं)