समाज को क्या महिलाओं से विशेष तरह के नेतृत्व की आशा रहती है
डॉ. अर्चना सिंहएसो. प्रोफेसर, गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थानक्या महिला और पुरुष अधिकारियों के नेतृत्व का तरीका अलग है या अधिकारी सिर्फ अधिकारी होता है और लोग भी उन्हें तटस्थ देखते हैं। मेजर लेफ्टिनेंट राजीव पुरी के पत्र ने एक बड़े विवाद को जन्म दिया है। यह पत्र 8 महिला कमांडिंग ऑफिसर के खराब […]
डॉ. अर्चना सिंह
एसो. प्रोफेसर, गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान
क्या महिला और पुरुष अधिकारियों के नेतृत्व का तरीका अलग है या अधिकारी सिर्फ अधिकारी होता है और लोग भी उन्हें तटस्थ देखते हैं। मेजर लेफ्टिनेंट राजीव पुरी के पत्र ने एक बड़े विवाद को जन्म दिया है। यह पत्र 8 महिला कमांडिंग ऑफिसर के खराब प्रदर्शन को लेकर है और उस प्रदर्शन का टीम पर होने वाले नकारात्मक असर की बात करता है। हालांकि लोग इस गोपनीय पत्र के सार्वजनिक होने की भत्र्सना भी कर रहे हैं और इसमें लिखी बातों पर सोचने की जरूरत पर जोर भी दे रहे हैं। इस मुद्दे के केंद्र में सुप्रीम कोर्ट से 2020 में आया हुआ निर्णय है जिसमें महिला सैन्य अधिकारियों को स्थाई कमीशन व कमांड पोस्टिंग के लिए पात्र ठहराया गया है। चूंकि यह विवाद, पत्र के इरादों व अवलोकन के इर्द-गिर्द सिमट गया, लेकिन एक बड़ा विषय जो इस विमर्श की सतह में है कि क्या सेना जैसे सशक्त दलों में महिलाएं कोई सकारात्मक योगदान दे पाती हैं। प्रश्न और भी गंभीर हो जाता है जब ये महिलाएं नेतृत्व की भूमिका में आ जाती है। जब महिला अधिकारी में दंभ की भावना की प्रबलता देखी जाती है तो इसे स्त्रीत्व के पैमाने पर नापा जाता है या यह आकलन जेंडर निरपेक्ष होता है। क्या यह दंभ पुरुष में नहीं होता है?
क्या पुरुष ऑफिसर में यही भाव उनके समर्थ एवं सक्षम होने जैसे नहीं देखा जाता है? इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सेना एवं सशक्त दलों में सुरक्षा व अनुशासन की एक तरह की सख्ती होती है, जिसे वे अपनी शक्ति मानते हैं, लेकिन महिला अधिकारी के मामले में क्या इसे दूसरे चश्मे से देखा जाता है। क्या महिला अधिकारियों से किसी विशेष तरह के नेतृत्व की आशा है? 2003 से महिला सैन्य अधिकारी अपनी परमानेंट कमीशन की लड़ाई हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट में लड़ते-लड़ते अंत में 2020 में जीत पाती हैं। प्रश्न है कि कोर्ट के आदेश के बाद क्या उन्हें व्यवस्था में भी स्वीकार्यता मिल पाई है। कई महिला अफसरों की मानें तो अपने को सिद्ध करने की लड़ाई रोज की लड़ाई है। एक और गंभीर आरोप है कि महिला अधिकारी वरिष्ठ पुरुष अधिकारियों से अपने मातहतों की शिकायत करती है। इस तथ्य में थोड़ा अंर्तविरोध दिखता है जो महिला अधिकारी अहंकार की भावना से इतनी भरी होती है, वही कैसे अपने को याचक की मुद्रा में लाकर रोज-रोज अपने मातहतों की शिकायत करती है। क्या इस शिकायत में वरिष्ठों के हस्तक्षेप से व्यवस्था के बेहतर होने की आशा रहती है या सिर्फ ‘निंदा रस’।
एक और बात उस पत्र में है कि वे छोटी-छोटी सफलताओं का कीर्तिगान करती है। सच है कि शायद पुरुषों की स्केल पर वो सफलता छोटी हो पर उनके या नारी समाज के लिए ये बड़ी सफलता होती है और इसका यशगान कई बार सीमांत पर खड़ी महिलाओं में स्वप्न जगाता है। खराब प्रदर्शन की पड़ताल करते हुए जिस ‘जेंडर न्यूट्रैलिटी’ की बात की गई है, शायद उसकी जरूरत सबसे पहले उन सभी लोगों को है जो कि स्त्रीत्व व नेतृत्व में एक द्वंदात्मक रिश्ता देखते हैं। जो मानते है कि स्त्रीत्व नेतृत्व के लिए नहीं है और उनमें अनुभव व प्रशिक्षण की कमी होती है। सक्षम महिला अधिकारियों को लोगों की नापसंदगी झेलनी होती है। ऐसा देखा जाता है कि इस तरह के आरोप सभी क्षेत्रों में पुरुषों द्वारा महिला नेतृत्व पर लगाए जाते हैं। तो क्या यह मान लिया जाए कि महिलाएं जहां भी नेतृत्व में है खराब प्रदर्शन कर रही हैं या महिलाओं के नेतृत्व से समाज की अपेक्षा ही अलग है। एक स्त्रीत्व के गुणों से पूर्ण महिला एक सक्षम अधिकारी नहीं हो सकती है या एक कठोर व दृढ़ अधिकारी के महिला होने पर ही प्रश्न है।
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