दरअसल, हार्वर्ड विश्वविद्यालय का यह अध्ययन चिंता पैदा करने वाला है। इसमें दावा किया गया है कि प्रदूषित क्षेत्र में लंबे समय से रहने वालों को कोरोना से मृत्यु का खतरा अधिक है। इसके लिए पीएम 2.5 कणों को आधार बनाया गया है।
Covid-19: कोरोना के खिलाफ जंग में राज्यों को मिला केंद्र का साथ, इमरजेंसी पैकेज का हुआ ऐलान हार्वर्ड विश्वविद्यालय के टीएच चैन स्कूल ऑफ प्ल्किक हेल्थ का अध्ययन रिपोर्ट दो दिन पहले बोस्टन में जारी हुआ है। यह अध्ययन अमरीका के उन 1783 जिलों में किया गया जहां 4 अप्रैल तक कोरोना से 90 फीसदी मौतें हुई थीं। शोधकर्ताओं ने इन जिलों में पीएम 2.5 के पिछले 20 सालों के स्तर के आंकड़ों के आधार पर मौतों की माडलिंग की गई।
इस शोध अध्ययन में न्यूयार्क का मेनहट शहर न भी शामिल है जहां इसी अवधि तक 1905 मौतें हुई थी। इसमें कहा गया कि यदि वहां पीएम 2.5 का स्तर कम होता तो इन मौतों को 248 तक ही रोका जा सकता था।
केंद्र ने क्यों माना, कोरोना संक्रमण के लिए खास समुदाय या स्थान पर दोषारोपण ठीक नहीं? हार्वर्ड हेल्थ स्कूल के बायोस्टैस्टिक्स के प्रोफेसर फ्रांसिस्का डोमिनिकी ने कहा कि मॉडलीय अध्ययन में दावा किया गया है कि प्रति क्यूबिक मीटर पीएम 2.5 की मात्रा एक माइक्रोग्राम भी ज्यादा होने से मृत्यु का खतरा 15 फीसदी बढ़ सकता है।
भारतीय पर्यावरण विशेषज्ञों ने हार्वर्ड के इस अध्ययन पर गंभीर चिंता जाहिर की है। क्लाईमेट ट्रेंड की निदेशक आरती खोसला ने कहा चूंकि देश में पीएम 2.5 का स्तर ऊंचा है। इससे लोगों में कई बीमारियां पहले से ही हैं। लॉकडाउन से पिछले दो सप्ताह से प्रदूषण कम हुआ है। इसके बावजूद सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि लॉकडाउन खुलने पर हवा की गुणवत्ता को इसी प्रकार कायम रखा जाए।
बता दें कि वर्ल्ड मोस्ट पॉल्यूटेड सिटीज-2019 की वार्षिक रिपोर्ट में वातावरण में पीएम 2.5 की मात्रा प्रति क्यूबिक मीटर 40 माइक्रोग्राम से ज्यादा को खतरनाक माना गया है।