मारवाड़ में मांडणों में हमेशा शुभ एवं सौभाग्यशाली रंग ही काम में लेते हैं। मांडणे चौक में बनाकर रात के पूजन के बाद उन पर गेहूं के ‘आखा’ रखकर घी का दीपक रोशन किया जाता है। मांडणों में दीपावली के स्वास्तिक, लक्ष्मीजी या अन्य देवी देवता का अंकन कर पूजन के बाद घर में बने मिष्ठान से भोग लगाया जाता है। मांडणों के बनाने के बाद जब तक मिटाया नहीं जाता तब तक कि वे स्वयं अपने आप साफ नहीं हो जाते है।
‘मांडणा’ का शाब्दिक अर्थ है-कुछ बनाना, दीवारों पर या चौक में अलंकृत चित्रांकन करना। मारवाड के मांडणों में यहां की संस्कृति, परंपराओं ओर आस्थाओं का चित्रांकन सहन रूप में प्रदर्शित होता है। ‘मांडणा’ बनाना कोई किसी को नहीं सिखाता है। घर की वयोवृद्ध महिलाएं घर में खुशियों के मौकों अथवा तीज-त्यौंहारों पर ये आकृतियां बनाती है। घर की बालिकाएं सहज रूप से उसका अपने मन में चित्रांकन करते हुए सीख जाती है। मारवाड़ में मांडणा बनाने में गेरू एवं सफेद खडिया चूना ही उसके प्रमुख उपकरण हैं। मिट्टी का आंगन गोबर से लीपकर पहले तैयार किया जाता है।
स्कूल स्तर पर पाठ्यक्रम में मांडणा कला को आवश्यक रूप से सम्मिलित किया जाए तो इस कला को बचाया जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस लुप्त होती कला को बचाने के लिए कॉलेज स्तर पर या किसी रिसर्च सेंटर के माध्यम से मांडणा कला पर कार्यशालाओं का आयोजन किया जाना चाहिए।
– डॉ. विक्रमसिंह भाटी, कला, साहित्य व संस्कृति विशेषज्ञ, सहायक निदेशक राजस्थानी शोध संस्थान चौपासनी