लक्ष्मण जी ने पंचवटी में भगवान राम जी पूछा..
1- ज्ञान किसको कहते हैं?
2- वैराग्य किसको कहते हैं?
3- माया का स्वरूप बतलाइये?
4- भक्ति के साधन बताइये कि भक्ति कैसे प्राप्त हो?
5- जीव और ईश्वर में भेद बतलाइये?
भगवान श्री राम लक्ष्मण जी की बात सुनकर कहते हैं-
थोरेहि महं सब कहउं बुझाई।
सुनहु तात मति मन चित्त लाई।।
अर्थात- थोड़े में ही सब समझा देता हूं। यही विविधता है कि थोड़े में ही ज्यादा समझा देता हू्ं।
1- पहले भगवान ने माया वाला सवाल उठाया है क्योंकि पहले माया को जान लेना चाहिए। भगवान कहते हैं कि माया वैसे तो अनिर्वचनीय है लेकिन फिर भी –
मैं अरु मोर तोर तैं माया।
जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया।।
अर्थात- मैं, मेरा और तेरा – यही माया है, केवल छह शब्दों में बता दिया। मैं अर्थात् जब ”मैं” आता है तो ”मेरा” आता है और जहां ”मेरा” होता है वहां ”तेरा” भी होता है- तो ये भेद माया के कारण होता है।
माया के भी दो भेद बताये हैं- एक विद्या और दूसरी अविद्या।
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा।
जा बस जीव परा भवकूपा।।
एक रचइ जग गुन बस जाकें।
प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें।।
अर्थात- अविद्या रूपी माया जीव को जन्म-मरण के चक्कर में फंसाती है, भटकता रहता है जीव जन्म अथवा मृत्यु के चक्कर में। और दूसरी विद्या रूपी माया मुक्त करवाती है।
2- दूसरा प्रश्न- ज्ञान किसको कहते हैं?
अर्थात- हम ज्ञानी किसे कहेंगे?, जो बहुत प्रकांड पंडित हो, शास्त्रों को जानता हो, बड़ा ही अच्छा प्रवचन कर सकता हो, दृष्टांत के साथ सिद्धांत को समझाये, संस्कृत तथा अन्य बहुत सी भाषाओं का जिसे ज्ञान हो वही ज्ञानी !!!! पंडित और ज्ञानी में अन्तर है, उसे पंडित कह सकते हैं लेकिन ज्ञानी नहीं।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने बड़ी अद्भुत व्याख्या की है ज्ञानी की-
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं।
देख ब्रह्म समान सब माहीं।।
अर्थात- ज्ञान उसको कहते हैं- जहां मान न हो अर्थात् जो मान-अपमान के द्वन्द्व से रहित हो और सबमें ही जो ब्रह्म को देखे। ज्ञान के द्वारा तो ईश्वर की सर्वव्यापकता का अनुभव हो जाता है तो सबमें भगवान को देखने लग जाता है।
3- तीसरा प्रश्न- वैरागी किसको कहेंगे?
अर्थात- हमारी परिभाषा यह है कि भगवें कपड़े पहने हो या फिर संसार छोड़ कर भाग गया हो, सिर पर जटायें हो, माथे पर तिलक हो, हाथ में माला लिए हुए हो- वैरागी !!!!
भगवान श्री राम कहते हैं-
कहिअ तात सो परम बिरागी।
तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी।।
अर्थात- परम वैरागी वह है, जिसने सिद्धियों को तृन अर्थात् तिनके के समान तुच्छ समझा। कहने का तात्पर्य है कि जो सिद्धियों के चक्कर में नहीं फंसता और तीनि गुन त्यागी अर्थात् तीन गुण प्रकृति का रूप यह शरीर है- उससे जो ऊपर उठा अर्थात् शरीर में भी जिसकी आसक्ति नहीं रही- वही परम वैरागी है।
5- चौथा प्रश्न- जीव और ईश्वर में भेद-
माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव।
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव।।
अर्थात् जो माया को, ईश्वर को और स्वयं को नहीं जानता- वह जीव और जीव को उसके कर्मानुसार बंधन तथा मोक्ष देने वाला- ईश्वर।
5- पांचवां प्रश्न- भक्ति के साधन कौन से हैं, जिससे भक्ति प्राप्त हो जाए?
भगवान श्री राम कहते हैं-
भगति कि साधन कहउँ बखानी। सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी।।
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती।।
एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा।।
श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाही। मम लीला रति अति मन माहीं।।
अर्थात- भक्ति के साधन बता रहा हूं, जिससे प्राणी मुझे बड़ी सरलता से पा लेता है। सबसे पहले विप्रों के चरण विपरें। विप्र का अर्थ है, जिसका जीवन विवेक प्रदान हो, ऐसे विप्रों के चरण विपरें। वेदों के बताये मार्ग पर चलें, अपने कर्तव्य-कर्म का पालन करें। इससे विषयों में वैराग्य होगा तथा वैराग्य उत्पन्न होने पर भगवान के (भागवत) धर्म में प्रेम होगा। तब श्रवणादिक नौ प्रकार की भक्तियां आ जाएंगी और भगवान की लीलाओं में प्रेम हो जाएगा।
संतों के चरणों में प्रेम हो, मन, कर्म और वचन से भगवान का भजन करे तथा गुरु, पिता, माता, भाई, पति और देवता सबमें मुझे ही देखे, सबको वंदन करे, सबकी सेवा करे- इतना कर ले, तो समझो मिल गयी भक्ति! अब भक्ति मिली है या नहीं, इसका हमें कैसे पता चले ????
तो इसके लिये दो चौपाई और बतायी हैं-
मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा।।
काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें।।
अर्थात- मेरे गुणों को गाते समय जिसका तन पुलकायमान हो उठे, शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गदगद हो जाए और नेत्रों से पानी बहने लगे-
लेकिन केवल इतना ही काफी नहीं है। जिसका शरीर पुलकित हो उठे, वाणी गदगद हो जाए और नेत्रों से नीर बहने लगे, उसे best acting का award अवश्य मिलेगा, लेकिन भगवान का भक्त नहीं कहलायेगा। उसके लिए एक चौपाई और कही है, वो बड़े काम की है-
“काम आदि मद दंभ न जाकें”
जिसमें काम (विकार) न हो, मद (अहंकार) न हो और सबसे बड़ी बात दंभ (पाखंड) न हो- वही भक्त है। भगवान ऐसे भक्त के सदा वश में रहते हैं।
दोहा- बचन कर्म मन मोरि गति भजन करहिं नि:काम।
तिन्ह के हृदय कमल महुं करउँ सदा बिश्राम।।
आगे भगवान कहते हैं- जिसको मन, कर्म और वचन से मेरा ही आश्रय है तथा जो निष्काम भाव से मेरा भजन करता है, उसके हृदय में मैं सदा विश्राम करता हूं।
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