कान, वेनिस, बर्लिन जैसी प्रतिष्ठा से दूर
फिल्म समारोह में ढेर सारी फिल्में देखना वैसा ही है, जैसे किताबों के मेले में कई उम्दा किताबें पढऩे का मौका मिलना। विभिन्न देशों की फिल्में सांस्कृतिक खिड़कियों की तरह होती हैं, जो उन देशों के बारे में जानने-समझने का मौका देती हैं। अच्छी फिल्में दिमागी खुराक बन जाती हैं। अच्छी फिल्मों की तो बात अलग है, आम विदेशी फिल्मों में भी कुछ न कुछ नया जरूर होता है। अफसोस की बात है कि हमारा यह आयोजन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उस प्रतिष्ठा और पहचान से 50 साल भी दूर है, जो कान, वेनिस, बर्लिन और मिलान के फिल्म समारोह को हासिल है। इस मामले में दक्षिण कोरिया का बुसान फिल्म समारोह 25 साल में ही हमसे आगे निकल गया है। दुनियाभर के ही नहीं, भारतीय फिल्मकारों की भी यही कोशिश रहती है कि उनकी नई फिल्म का प्रीमियर विदेशी समारोह में हो। बर्लिन, कान, वेनिस आदि के समारोह में ऐसी फिल्मों को शामिल नहीं किया जाता, जो किसी और समारोह में दिखाई जा चुकी हों। इसलिए ज्यादातर विदेशी फिल्मकार भारत के समारोह में नई फिल्म भेजने से कतराते हैं।
भारतीय पैनोरमा की फिल्में तय नहीं
इस बार जो 224 फिल्में दिखाई जाने वाली हैं, उनमें से कितनी का प्रीमियर गोवा समारोह में होगा, इसका खुलासा फिलहाल नहीं हुआ है। भारतीय पैनोरमा की फिल्मों के नाम भी सामने नहीं आए हैं। इस बार कोरोना काल में फिल्मों की गतिविधियां जिस तरह गड़बड़ाई हैं, उसका थोड़ा-बहुत असर इस आयोजन पर भी पड़ेगा। कई भारतीय फिल्में अधूरी हैं और जो तैयार थीं, उनका प्रीमियर किसी न किसी विदेशी समारोह में हो चुका है। शायद इन्हीं में से कुछ का चयन कर भारतीय पैनोरमा की गिनती पूरी की जाए। विडम्बना है कि पैनोरमा के लिए दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाले देश की 40-45 फिल्में चुनना भी टेढ़ी खीर बना हुआ है।
आलोचकों के निशाने
भारत के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह की इस बात को लेकर भी आलोचना होती रही है कि नए फिल्मकारों को भी आयोजन से जोडऩे के बजाय इसमें कुछ स्थापित नामों का दबदबा रहता है। दिग्गज फिल्मकार एम.एस. सथ्यू ने कई साल पहले इस दबदबे को लेकर कहा था- ‘जो लोग महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं, वे महत्त्व की हर जगह को घेर लेते हैं। हर समारोह में ये भारत सरकार के प्रतिनिधि हो जाते हैं। मानो इनका सूचना-प्रसारण मंत्रालय से कोई कॉन्ट्रेक्ट हो गया है कि हर बार इन्हें ही बुलाया जाए, इन्हीं की फिल्में दिखाई जाएं।’
मकसद की तरफ दो कदम और
उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बार गोवा में अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह उस मकसद की तरफ कुछ कदम और बढ़ाएगा, जिसको लेकर इसकी शुरुआत की गई थी। यह कि लोगों की रुचि परिष्कृत हो और उनमें स्वस्थ फिल्म संस्कृति का विकास हो।