मेवाड़ की राजधानी उदयपुर की स्थापना 1559 में आखातीज (अक्षय तृतीया) के दिन महाराणा उदय सिंह ने की। तिथि को लेकर इतिहासकारों के अलग-अलग मत हैं। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि उदयपुर की स्थापना 1559 में की गई थी, जिसके प्रमाण उदयपुर (राजस्थान) के मोतीमहल में मिलते हैं। जबकि कुछ मानते हैं कि इसकी स्थापना 1553 ई. में हो गई थी। इतिहासकार जीएल मेनारिया के अनुसार, पुष्करणा भट्ट ब्राह्मण परिवार से प्राप्त ऐतिहासिक ताम्रपत्र एवं सुखेर गांव के पीपलाज माता मंदिर के एक शिलालेख के मुताबिक उदयपुर के संस्थापक महाराणा उदय सिंह ने अपने पुत्र अमर सिंह के जन्म के दसवें माह में यहां मुंडन संस्कार रखवाया था। उस समय महाराणा प्रताप सहित पूरा राज परिवार एकलिंगजी दर्शनार्थ गया था। तब उदय सिंह ने अंबेरी गांव में भूमि दान दी। महाराणा जवान सिंह के शासनकाल (सन 1827 ईस्वी से 1838 ईस्वी) में इस परिवार के पूर्वजों को दिए गए दान पत्र का नवीनीकरण कर फिर से ताम्रपत्र पर 25 बीघा भूमि दान का प्रमाण सौंपा। सुखेर का यह ताम्रपत्र उदयपुर नगर की स्थापना तिथि का प्रमाण है। इन साक्ष्यों के क्रम में महाराणा राज सिंह कालीन संस्कृत ग्रंथ “अमर काव्य ***** में पंडित रणछोड़ भट्ट ने भी लिखा है कि चैत्र शुक्ला एकादशी विक्रम संवत 1624 सोमवार के दिन महाराणा उदय सिंह ने नगर में प्रवेश किया और अपने नाम से इस नई राजधानी का नाम उदयपुर रखा।
संघर्ष के बीजों को लेकर महाराणा उदयसिंह ने बसाया उदयपुर रूपी वटवृक्ष इतिहासकार डॉ.श्रीकृष्ण जुगनू के अनुसार, अरावली पर्वतमाला में जनजीवन के अभ्युदय के संकल्प के साथ जिस नगर की बुनियाद रखी गई, वह उदयपुर है। पानी की धार और पहाड़ियों की भूलभुलैया में इस नगर की स्थापना उस दौर की कहानी लिए हैं जब पश्चिम और मध्य भारत की अधिकांश रियासतों ने मुगलिया खिलअत पहन ली थी, लेकिन कुछ रियासतें ऐसी भी थी, जिन्हें मुगल प्रतिरोध के लिए मेवाड़ के नेतृत्व में पूरा भरोसा था। इनमें मांडू और अफगानी सहित ग्वालियर के राजवंश भी थे। चित्तौड़ ध्वंस भारतीय इतिहास की सबसे भयावह घटना थी और अवश्यंभावी थी। ऐसे दौर में भविष्य के लिए भी संघर्ष के बीजों को लेकर महाराणा उदय सिंह ने जिस नवीन नगर का निवेश किया, वह उदयपुर है। बहुत पहले बंजारों ने इसे एक रास्ते के रूप में पहचाना था और उसको गिरवा तथा चीरवा के नाम से जाना जाता था। यह जावरमाल और बाबरमाल जैसी चांदी तथा यशद सहित पाषाणों की खानों से राज्य का आहार क्षेत्र ( राजस्व प्रधान) भी मान्य था। इसकी पहचान ईसा पूर्व से लेकर दसवीं सदी तक सुदूर तक थी। वन संपदा भी भरपूर थी। ऐसे में यह आर्थिक रूप से संपन्न क्षेत्र माना जाता था। मान्यता यह भी थी कि पहाड़ियों में पनाह लेने वाला बच जाता है जबकि अनजान शत्रु भटककर खत्म हो जाते हैं। उस दौर में जबकि अक्षय द्वितीया और अक्षय तृतीया जैसी तिथियों पर जांगल, गुजरात और मारवाड़ में बड़े महत्व के नगर बसाए जा चुके थे, ऐसे में उदयपुर के निवेश के लिए भी इसी तिथि को चुना गया। उदयसागर जैसी झील, उदयश्याम देवालय और उदयपुर जैसे नगर की तिकड़ी इसी तिथि ने साधी। बिना किसी प्रचार और आडंबर के यह सब निर्माण और निवेश हुआ।