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जैसा कि वे बताते हैं कि जोधपुर में वकालत के दौरान उनके मन में कुछ नया करने का विचार आया। पॉली हाउस प्रणाली से खेती करने का मानस बनाया। इस बीच पता चला कि खीरा-ककड़ी के प्रदेश में सबसे अच्छे दाम उदयपुर में मिलते हैं। तो फिर इन्होंने इसकी शुरुआत उदयपुर से करने की ठानी। मूल रूप से पाली जिले के सिन्दरली के रहने वाले रविन्द्र सिंह की इतनी अच्छी आमदनी हो रही है कि चंद साल में उदयपुर में आलीशान फ्लैट के अलावा दो लग्जरी कारें हैं।
पॉली हाउस की कहानी, रविन्द्र की जुबानी
जैसा कि युवा किसान रविन्द्र बताते हैं एक पॉली हाउस दो से ढाई बीघा का होता है। इसमें खीरा-ककड़ी के दस से बारह हजार पौधे पनपते हैं। एक फसल की अवधि बीज लगाने से लेकर पकने तक चार महीने की होती है। एक साल में इसकी तीन फसलें ली जाती हैं। दो से ढाई बीघा के एक पॉली हाउस से चार महीने में 50 से 60 टन माल उतरता है। खीरा-ककड़ी 20 से 40 रुपए प्रति किलो थोक के भाव में बिकती है। यानी एक साल में एक पॉली हाउस से 50 लाख के आसपास आमदनी होती है।
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बूंद-बूंद सिंचाई पद्धति
ये खीरा-ककड़ी की खेती में बूंद-बूंद सिंचाई पद्धति का उपयोग करते हैं। ताकि पानी व्यर्थ नहीं जाए। कुएं के पानी को पहले ये बड़ी हौदी में डालते हैं और फिर वहां से बूंद-बूंद सिंचाई पद्धति से पाइप के जरिए पानी पिलाते हैं। हौदी में पानी जमा करने के पीछे उनका कहना है कि कभी पानी का संकट हो जाए या मोटर-मशीन खराब हो जाए तो भी उसमें करीब चार महीने तक का पानी सहेज कर रखा जा सकता है। वैसे पॉली हाउस के लिए कम पानी की जरूरत होती है।
बारिश का पानी भी सहेजते हैं…
रविन्द्र बारिश का पानी भी हौदी में सहेज कर रखते हैं। उनका कहना है कि बारिश के दिनों में हौदी में पानी भरने के लिए एक साइड का हिस्से को ढलान का रूप देते हैं, ताकि सहजता से वह भर जाए। हौदी भरने के बाद खेती के लिए चार महीने तक का पानी मिल जाता है।
लघु सीमांत किसान को सरकार देती 70 फीसदी राशि
जानकार बताते हैं कि किसानों के लिए राज्य और केन्द्र सरकार की ओर से पॉली हाउस और उसकी खेती के लिए 70 फीसदी तक अनुदान दिया जाता है। दो से ढाई बीघा पॉली के निर्माण में करीब 35 लाख का खर्च आता है, जिसमें लघु सीमांत किसान को 70 फीसदी राशि सरकार देती है।