सोशलिस्ट पार्टी में विभाजन की वजह से प्रजा सोशलिस्ट और संयुक्त सोशलिस्ट दो पार्टियां बनीं। इसके चलते इनका आंदोलन कमजोर पडऩे लगा। पहले कुछ नेताओं ने कांग्रेस की सदस्यता ली, इसके बाद वर्ष 1973 में चंदौली सम्मेलन में पार्टी का विलय करते हुए नेता जगदीशचंद्र जोशी, श्रीनिवास तिवारी, अच्युतानंद, महावीर सिंह सोलंकी, शिवकुमार शर्मा, तोषण सिंह, रामखेलावन नीरत ने कांग्रेस की सदस्यता ली। इसके बाद कांग्रेस की ताकत विंध्य में बढ़ गई। उधर, जनसंघ ने कई पार्टियों को जोड़कर अपनी ताकत मजबूत की। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता कांग्रेस के खिलाफ लड़ते रहे। आखिरकार उन्होंने भी जनता पार्टी में विलय कर लिया। इसके बाद भाजपा का भी गठन हुआ और वह कांग्रेस के मुकाबले में आई। अब भाजपा ने पूरी कार्ययोजना के साथ लोगों को अपने साथ जोड़ा।
तीसरे मोर्चे को अवसर मिले पर जड़ नहीं जमा पाए
विंध्य में तीसरे मोर्चे को भी अवसर मिले लेकिन वह अपनी जड़ें नहीं जमा पाया। अब तक हुए चुनावों में नजर डालें तो विंध्य प्रदेश के पहले चुनाव में ही कांग्रेस के सामने मुख्य विपक्षी दल सोशलिस्ट था। तीसरे मोर्चे के रूप में किसान मजदूर प्रजापार्टी, रामराज्य परिषद जैसे दल उभरे थे। इसके बाद यहां के लोगों ने कम्युनिष्ट और जनता दल जैसे दलों को भी समर्थन दिया। बसपा को मजबूती भी यहीं से मिली तो समाजवादी पार्टी ने भी कई सीट जीती। अब नई पार्टी के रूप में आम आदमी पार्टी सामने आई है। इसे भी विंध्य में ही पहला मौका मिला है।
हर वर्ग के लिए योजनाएं
पार्टी ने व्यापारियों और उच्च वर्ग के लिए अलग तरह से योजना बनाई। गरीबों के लिए सीधे लाभ वाली योजनाएं दी, जिसका असर हुआ कि प्रदेश में दूसरी ओर जहां भाजपा पिछले चुनाव में कमजोर साबित हुई तो विंध्य में एकतरफा जीत मिली।
सामाजिक आंदोलन के चलते ही बसपा का उदय
मध्यप्रदेश में बसपा ने अपनी पैठ विंध्य के जरिए ही जमाई थी। आजादी के पहले राजतंत्र था। उन दिनों सरकार के खिलाफ खुले आंदोलन की अनुमति नहीं थी। आजादी के बाद समाजवाद की जड़ें मजबूत हुईं। उन दिनों सामंतवाद के विरोध की वजह से जनता इनके साथ रही। हालांकि बाद में यह जातिवाद में बदलता गया। इसके बाद 90 के दशक में सामाजिक आंदोलन की देशभर में हवा चली। इसका विंध्य में असर तेजी से दिखा। इसी बीच लक्ष्मण तिवारी के नेतृत्व में सवर्ण समाज पार्टी भी उभरी। इस पार्टी का खुद का राजनीतिक अस्तित्व तो नहीं बन पाया लेकिन दलितों, पिछड़ों के मेल से बसपा का उदय जरूर हो गया। रीवा-सतना में कई चुनाव बसपा ने जीते। इसके बाद भाजपा ने बदलाव का माहौल बनाया और सरकार बनी तो अपनी योजनाओं के जरिए लोगों को जोड़ा। यही कारण है कि अब तक कई वर्षों से लगातार भाजपा मजबूती से खड़ी है।