एक ओर जहां अचलेश्वर महादेव मंदिर धौलपुर दिन में तीन बार रंग बदलने वाला शिवलिंग है। वहीं राजस्थान के माउंट आबू में स्थित अचलेश्वर महादेव दुनिया का ऐसा इकलौत मंदिर है जहां पर शिवजी के पैर के अंगूठे की पूजा होती है।
बताया जाता है कि ऐतिहासिक स्थल अचलगढ़ में ई. सन 813 में अचलेश्वर महादेव का मंदिर निर्मित किया गया।
भगवान शिव के पैरों के निशान : आज भी हैं मौजूद
इस अचलेश्वर मंदिर में भगवान शिव के पैरों के निशान आज भी मौजूद है। यहां भगवान भोले अंगूठे के रुप में विराजते हैं और शिवरात्रि व सावन के महीने में इस रूप के दर्शन का विशेष महत्व माना जाता है।
माउंट आबू को अर्धकाशी के नाम से भी जाना जाता है, क्योकि यहां पर भगवान शिव के कई प्राचीन मंदिर करीब 108 मंदिर मौजूद हैं। स्कंद पुराण के मुताबिक वाराणसी शिव की नगरी है तो माउंट आबू भगवान शंकर की उपनगरी। अचलेश्वर माहदेव मंदिर माउंट आबू से लगभग 11 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में अचलगढ़ की पहाड़ियों पर अचलगढ़ के किले के पास स्थित है।
इस मंदिर में प्रवेश करते ही पंच धातु की बनी नंदी की एक विशाल प्रतिमा है, जिसका वजन चार टन हैं।
मंदिर के अंदर गर्भगृह में शिवलिंग पाताल खंड के रूप में दिखता होता है, वहीं इसके ऊपर एक तरफ पैर के अंगूठे का निशान उभरा हुआ है, जिन्हें स्वयंभू शिवलिंग के रूप में पूजा जाता है।
यह देवाधिदेव शिव का दाहिना अंगूठा माना जाता है। पारम्परिक मान्यता है की इसी अंगूठे ने पूरे माउंट आबू के पहाड़ को थाम रखा है, जिस दिन अंगूठे का निशां गायब हो जाएगा, माउंट आबू का पहाड़ ख़त्म हो जाएगा।
इसके अलावा मंदिर परिसर के विशाल चौक में चंपा का विशाल पेड़ अपनी प्राचीनता को दर्शाता है। मंदिर की बायीं बाजू की तरफ दो कलात्मक खंभों का धर्मकांटा बना हुआ है, जिसकी शिल्पकला अद्भुत है।
कहते हैं कि इस क्षेत्र के शासक राजसिंहासन पर बैठने के समय अचलेश्वर महादेव से आशीर्वाद प्राप्त कर धर्मकांटे के नीचे प्रजा के साथ न्याय की शपथ लेते थे। मंदिर परिसर में द्वारिकाधीश मंदिर भी बना हुआ है। गर्भगृह के बाहर वाराह, नृसिंह, वामन, कच्छप, मत्स्य, कृष्ण, राम, परशुराम, बुद्ध व कलंगी अवतारों की काले पत्थर की भव्य मूर्तियां स्थापित हैं।
मंदिर की पौराणिक कथा (Mythological Story of Achleshwar Temple) :
मान्यता के अनुसार पौराणिक काल में जहां आज आबू पर्वत स्थित है, वहां नीचे विराट ब्रह्म खाई थी। इसके तट पर वशिष्ठ मुनि रहते थे। उनकी गाय कामधेनु एक बार हरी घास चरते हुए ब्रह्म खाई में गिर गई, तो उसे बचाने के लिए मुनि ने सरस्वती गंगा का आह्वान किया, तो ब्रह्म खाई पानी से जमीन की सतह तक भर गई और कामधेनु गाय गोमुख पर बाहर जमीन पर आ गई। एक बार दोबारा ऐसा ही हुआ।
इसे देखते हुए बार-बार के हादसे को टालने के लिए वशिष्ठ मुनि ने हिमालय जाकर उससे ब्रह्म खाई को पाटने का अनुरोध किया। हिमालय ने मुनि का अनुरोध स्वीकार कर अपने प्रिय पुत्र नंदी वद्र्धन को जाने का आदेश दिया। अर्बुद नाग नंदी वद्र्धन को उड़ाकर ब्रह्म खाई के पास वशिष्ठ आश्रम लाया।
आश्रम में नंदी वद्र्धन ने वरदान मांगा कि उसके ऊपर सप्त ऋषियों का आश्रम होना चाहिए और पहाड़ सबसे सुंदर व विभिन्न वनस्पतियों वाला होना चाहिए। इस पर वशिष्ठ ने वांछित वरदान दिए।
उसी प्रकार अर्बुद नाग ने वर मांगा कि इस पर्वत का नामकरण उसके नाम से हो। इसके बाद से नंदी वद्र्धन आबू पर्वत के नाम से विख्यात हुआ। वरदान प्राप्त कर नंदी वद्र्धन खाई में उतरा तो धंसता ही चला गया, केवल नंदी वद्र्धन का नाक और ऊपर का हिस्सा जमीन से ऊपर रहा, जो आज आबू पर्वत है।
इसके बाद भी वह अचल नहीं रह पा रहा था, तब वशिष्ठ के विनम्र अनुरोध पर महादेव ने अपने दाहिने पैर के अंगूठे पसार कर इसे स्थिर किया यानी अचल कर दिया, जिसके बाद यह अचलगढ़ कहलाया।
अचलेश्वर महादेव मंदिर अचलगढ़ की पहाड़ियों पर अचलगढ़ के किले के पास स्थित है। अचलगढ़ का किला जो की अब खंडहर में तब्दील हो चूका है, का निर्माण परमार राजवंश द्वारा करवाया गया था।