कभी मत सोचिये कि आत्मा के लिए कुछ असंभव है, ऐसा सोचना सबसे बड़ा विधर्म है- स्वामी विवेकानंद
दक्षिणेश्वर के मन्दिर निर्माण के समय तीन श्रमिक धूप में बैठे पत्थर तोड़ रहे थे। उधर से गुजर रहे श्री रामकृष्ण देव ने उनसे पूछा- क्या कर रहे हैं? एक बोला; अरे भई, पत्थर तोड़ रहा हूं। उसके कहने में दुःख था और बोझ था। भला पत्थर तोड़ना आनन्द की बात कैसे हो सकती है। वह उत्तर देकर फिर बुझे हुए मन से पत्थर तोड़ने लगा। तभी श्री परमहंस देव की ओर देखते हुए दूसरे श्रमिक ने कहा, बाबा, यह तो रोजी-रोटी है। मैं तो बस अपनी आजीविका कमा रहा हूं। उसने जो कहा, वह भी ठीक बात थी। वह पहले मजदूर जितना दुःखी तो नहीं था, लेकिन आनन्द की कोई झलक उसकी आंखों में नहीं थी। बात भी सही है, आजीविका कमाना भी एक काम है, उसमें आनन्द की अनुभूति कैसे हो सकती है।
अपनी “आस्था” गंवाकर आस्तिक बने रहने की बात सोचना एक ढोंग ही है : स्वामी विवेकानंद
तीसरा श्रमिक यूं तो हाथों से पत्थर तोड़ रहा था, पर उसके होंठो पर गीत के स्वर फूट रहे थे- ‘मन भजलो आमार काली पद नील कमले’। उसने गीत को रोककर परमहंस देव को उत्तर दिया- बाबा, मैं तो माँ का घर बना रहा हूं। उसकी आंखों में चमक थी, हृदय में जगदम्बा के प्रति भक्ति हिलोर ले रही थी। निश्चय ही माँ का मन्दिर बनाना कितना सौभाग्यपूर्ण है। इससे बढ़कर आनन्द भला और क्या हो सकता है। इन तीनों श्रमिकों की बात सुनकर परमहंस देव यह कहते हुए भाव समाधि में डूब गए कि सचमुच जीवन तो वही है, पर दृष्टिकोण भिन्न होने से सब कुछ बदल जाता है। दृष्टिकोण के भेद से फूल कांटे हो जाते हैं, और कांटे फूल हो जाते हैं। आनन्द अनुभव करने का दृष्टिकोण जिसने पा लिया उसके जीवन में आनन्द के सिवा और कुछ नहीं रहता।
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