नदी की तरह मुझे इस बात की चिंता नहीं है कि मुझ पर कोई धूल फेंकता है या फूल- गुरु नानक देव
जो यथार्थ त्यागी हैं वे सर्वदा ईश्वर पर मन रख सकते हैं; वे मधुमक्खी की तरह केवल फूल पर बैठते है; मधु ही पीते हैं। जो लोग संसार में कामिनी-कांचन के भीतर है उनका मन ईश्वर में लगता तो है, पर कभी-कभी कामिनी-कांचन पर भी चला जाता है; जैसे साधारण मक्खियां बर्फी पर भी बैठती हैं और सडे़ घाव पर भी बैठती है, विष्ठा पर भी बैठती है।
धिक्कार है ऐसे लोगों के जीवन पर जो जानते हुए भी… : महाकवि कालिदास
ईश्वर की बात कोई कहता है, तो लोगों को विश्वास नहीं होता। यदि कोई महापुरुष कहे, मैंने ईश्वर को देखा है, तो कोई उस महापुरुष की बात ग्रहण नहीं करता। लोग सोचते हैं, इसने अगर ईश्वर को देखा है तो हमें भी दिखाये तो जाने। परन्तु नाडी़ देखना कोई एक दिन में थोडे़ ही सीख लेता है! वैद्य के पीछे महीनों घूमना पड़ता है। तभी वह कह सकता है, कौन कफ की नाडी़ है, कौन पित्त की है और कौन वात की है। नाडी़ देखना जिनका पेशा है, उनका संग करना चाहिए।
जो जानने योग्य है, हम सिर्फ देखते हैं, लेकिन उसे ठीक से समझना चाहिए- संत जलालुद्दीन रूमी
“माँ, आनन्दमयी होकर मुझे निरानन्द न करना। मेरा मन तुम्हारे उन दोनो चरणों के सिवा और कुछ नहीं जानता। मैं नहीं जानता, धर्मराज मुझे किस दोष से दोषी बतला रहे हैं। मेरे मन में यह वासना थी कि तुम्हारा नाम लेता हुआ मैं भवसागर से तर जाऊंगा। मुझे स्वप्न में भी नहीं मालूम था कि तुम मुझे असीम सागर में डुबा दोगी। दिनरात मैं दुर्गानाम जप रहा हूं, किन्तु फिर भी मेरी दुःखराशि दूर न हुई। परन्तु हे हरसुन्दरी माता, यदि इस बार भी मैं मरा तो यह निश्चय है कि संसार में फिर तुम्हारा नाम कोई न लेगा।
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