गुरु पूर्णिमा 16 जुलाई : इस शुभ मुहूर्त करें गुरु एवं पर्व पूजन
गुरु शिष्य को गढ़ता है
गुरु वस्तुतः शिष्य को गढ़ता है एक कुम्भकार की तरह। इस कार्य में उसे कहीं चोट भी लगानी पड़ती है कुसंस्कारों का निष्कासन भी करना पड़ता है तथा कहीं अपने हाथों की थपथपाहट से उसे प्यारा का पोषण देकर उसमें सुसंस्कारों का प्रवेश भी वह कराता है। यह वस्तुतः एक नये व्यक्तित्व को गढ़ने की प्रक्रिया का नाम है। संत कबीर ने इसलिए गुरु को कुम्हार कहते हुये शिष्य को कुम्भ बताया है। मटका बनाने के लिये कुम्भकार को अंदर हाथ लगाकर बाहर से चोट लगानी पड़ती है कि कहीं कोई कमी तो रह नहीं गयी। छोटी-सी कमी मटके में कमजोरी उसके टूटने का कारण बन सकती है।
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प्रेम तो मात्र गुरु से ही होता है
गुरु ही एक ऐसी प्राणी है जिससे शिष्य के आत्मिक सम्बन्धी की सम्भावनायें बनती है प्रगाढ़ होती चली जाती है। शेष पारिवारिक सामाजिक प्राणियों से शारीरिक मानसिक-भावनात्मक सम्बन्ध तो होते है आध्यात्मिक स्तर का उच्चस्तरीय प्रेम तो मात्र गुरु से ही होता है। गुरु अर्थात् मानवीय चेतना का मर्मज्ञ मनुष्य में उलट फेर कर सकने में उसका प्रारब्ध तक बदल सकने में समर्थ एक सर्वज्ञ। सभी साधक गुरु नहीं बन सकते। कुछ ही बन पाते व जिन्हें वे मिल जाते है, वे निहाल हो जाते है।
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सद्गुरु-प्राण फूंकते है
रामकृष्ण कहते थे सामान्य गुरु कान फूंकते है जब कि अवतारों पुरुष श्रेष्ठ महापुरुष सतगुरु-प्राण फूंकते है। उनका स्पर्श, दृष्टि व कृपा ही पर्याप्त हैं। ऐसे गुरु जब आते है तब अनेकों विवेकानन्द, महर्षि दयानन्द, गुरु विरजानन्द, संत एकनाथ, गुरु जनार्दन नाथ, पंत निवृत्ति नाथ, गुरु गहिनी नाथ, योगी अनिर्वाण, गुरु स्वामी निगमानन्द, आद्य शंकराचार्य, गुरु गोविन्दपाद कीनाराम, गुरु कालूराम तैलंग स्वामी, गुरु भगीरथ स्वामी, महाप्रभु चैतन्य, गुरु ईश्वरपुरी जैसी महानात्माएं विनिर्मित हो जाती है। अंदर से गुरु का हृदय प्रेम से लबालब होता है बाहर से उसका व्यवहार कैसा भी हों। बाहर से उसका व्यवहार कैसा भी हो। उसके हाथ में तो हथौड़ा है जो अहंकार को चकनाचूर कर डालता है ताकि एक नया व्यक्ति विनिर्मित हो।
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सद्गुरु ही उपयोगी हो सकता है
गुरु का अर्थ है सोयों में जगा हुआ व्यक्ति, अंधों में आंख वाला व्यक्ति अंधों में आंख वाला व्यक्ति। गुरु का अर्थ है वहां अब सब कुछ मिट गया है मात्र परमात्मा ही परमात्मा है वहां बस! ऐसे क्षणों में जब हमें परमात्मा बहुत दूर मालूम पड़ता है, सद्गुरु ही उपयोगी हो सकता है क्योंकि वह हमारे जैसा है।
गुरु एक झरोखा है
मनुष्य जैसा है हाड़ मांस मज्जा का है फिर भी हमसे कुछ ज्यादा ही है। जो हमने नहीं जाना उसने जाना है। हम कल क्या होने वाले है, उसकी उसे खबर है। वह हमारा भविष्य है, हमारी समस्त सम्भावनाओं का द्वार है। गुरु एक झरोखा है, जिससे दूरस्थ परमात्मा रूपी आकाश को हम देख सकते है।
जिन्हें सद्गुरु के दर्शन हुए
वे अत्यन्त सौभाग्यशाली कहे जाते है जिन्हें सद्गुरु के दर्शन हुए। जो दर्शन नहीं कर पाए पर उनके शक्ति प्रवाह से जुड़ गये व अपने व्यक्तित्व में अध्यात्म चेतना के अवतरित होने की पृष्ठभूमि बनाते रहे, वे भी सौभाग्यशाली तो है ही जो गुरु की विचार चेतना से जुड़े गया वह उनके अनुदानों का अधिकारी बन गया। शर्त केवल एक ही है पात्रता का सतत् अभिवर्धन तथा गहनतम श्रद्धा का गुरु के आदर्शों पर आरोपण। जो इतना कुछ अंशों में भी कर लेता है वह उनका उतने ही अंशों में उत्तराधिकारी बनता चला जाता है।
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गुरु से एकत्व की अनुभूति
श्रद्धा की परिपक्वता समर्पण की पूर्णता शिष्य में अनन्त सम्भावनाओं के द्वार खोल देती है। शास्त्र पुस्तकें तो जानकारी भर देते है किन्तु गुरुसत्ता स्वयं में जीवन्त शास्त्र होते है। उनकी एक झलक भर देख कर अपने जीवन में उतारने जीवन में उतारने का प्रयास ही शिष्य का सही अर्थों में गुरुवरण है। गुरुवरण का गुरु से एकत्व की अनुभूति का अर्थ है परमात्मा से एकात्मता। गुरु देह नहीं है सत्ता है शक्ति का पुंज है। देह जाने पर भी क्रियाशीलता यथावत् बरकरार रहती है, वस्तुतः वह बहुगुणित हो सक्रियता के परिणाम में और अधिक व्यापक हो जाती है।
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