अपनी “आस्था” गंवाकर आस्तिक बने रहने की बात सोचना एक ढोंग ही है : स्वामी विवेकानंद
स्वार्थ में संलग्न व्यक्ति
हमें केवल अपने शरीर के लिए ही नहीं, आत्मा के लिए भी जीना चाहिए। यदि मनुष्य शरीर की सुविधा और सजावट का ताना-बाना बुनते रहने में ही इस बहुमूल्य जीवन को व्यतीत कर दें, तो उसे वह लक्ष्य कैसे प्राप्त होगा जिसके लिये जन्मा है। स्वार्थ में संलग्न व्यक्ति तो विघटन की ओर ही बढ़ेंगे। उनके व्यवहार एक दूसरे के लिए असन्तोषजनक और असमाधानकारक ही बनेंगे। ऐसी दशा में द्वेष और परायेपन की भावना बढ़कर आवरण को नारकीय क्लेश-कलह से भर देगी, और यह संसार अशांति एवं विनाश की काली घटाओं से घिरने लगेगा।
सृष्टि के सभी स्वर “ॐ” में पिरोए हैं, इसे जानने के बाद कुछ और शेष नहीं रहता
ईश्वर का पुत्र अपने लिए नहीं ईश्वर के लिए ही जी सकता है
ईसा ने सोचा कि यदि ईश्वर का, पुत्र केवल शारीरिक सुखों के लिए जीवन धारण किये रहेगा तो इस संसार में धर्म का राज्य कभी उदय न होगा। यदि अपने लिए ही जिया गया तो मनुष्य की पशुओं की अपेक्षा श्रेष्ठता कैसे बनी रहेगी, यह अनुभव करते हुए वे इसी निर्णय पर पहुँचे कि हमें अपने लिए नहीं प्रभु के लिए जीना चाहिए। अस्तु ईसा मसीह घर छोड़ कर चल दिए और बन पर्वतों और ग्राम नगरों में धर्म का प्रचार करते हुए भ्रमण करने लगे। ईश्वर का पुत्र अपने लिए नहीं ईश्वर के लिए ही जी सकता है, इसके अतिरिक्त उसके पास और दूसरा मार्ग ही क्या है?
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