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राजू और भीम की शहादत आई दुनिया के सामने

हाल ही में लॉस एंजिल्स में आयोजित 95वें ऑस्कर अवॉर्ड समारोह में भारतीय फिल्म आरआरआर के गाने नाटू-नाटू ने फिल्म इंडस्ट्री के सबसे प्रतिष्ठित ऑस्कर अवार्ड को जीतकर इतिहास रच दिया है। आमतौर पर इतिहास के नाम पर हम क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़े बड़े नायकों को ही जानते हैं, किंतु इतिहास की धारा को बदलने का काम उन गुमनाम नायकों ने भी किया जिनका ताल्लुक देश के सुदूरवर्ती आदिवासी गांवों से है।

Mar 17, 2023 / 09:55 pm

Patrika Desk

राजू और भीम की शहादत आई दुनिया के सामने

राजू और भीम की शहादत आई दुनिया के सामने


डॉ. विनोद यादव
शिक्षाविद् और इतिहासकार

हाल ही में लॉस एंजिल्स में आयोजित 95वें ऑस्कर अवॉर्ड समारोह में भारतीय फिल्म आरआरआर के गाने नाटू-नाटू ने फिल्म इंडस्ट्री के सबसे प्रतिष्ठित ऑस्कर अवार्ड को जीतकर इतिहास रच दिया है। आमतौर पर इतिहास के नाम पर हम क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़े बड़े नायकों को ही जानते हैं, किंतु इतिहास की धारा को बदलने का काम उन गुमनाम नायकों ने भी किया जिनका ताल्लुक देश के सुदूरवर्ती आदिवासी गांवों से है। सर्वश्रेष्ठ मूल गीत के लिए ऑस्कर 2023 का खिताब हासिल करने पर तेलुगु फिल्म ‘आरआरआर ‘ वैश्विक मंच पर दुनिया के संस्कृतिक-समीक्षकों के ध्यानाकर्षण का केंद्र बनी।
यह फिल्म 20वीं सदी के ऐसे दो गुमनाम फ्रीडम फाइटर्स- अल्लूरी सीताराम राजू और कोमाराम भीम पर बनी है, जिन्होंने अपनी शहादत देकर स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अपने योगदान को अविस्मरणीय बनाया। दरअसल, ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान अंग्रेजी हुकूमत का मुख्य उद्देश्य भारतीय कुटीर उद्योग, खेती-किसानी और वन्यक्षेत्र संसाधनों का दोहन करना था। भारतीय कृषि संसाधनों की लूट और शोषण के इसी क्रम में वन संसाधनों और वनवासी लोगों की कृषि भूमि का दोहन करने के मकसद से अंग्रेज सरकार ने 1882 में मद्रास वन अधिनियम लागू कर दिया था। इस कानून के तहत स्थानीय आदिवासियों को उनके जीविकोपार्जन-संसाधनों के इस्तेमाल करने पर बंदिश लगा दी गई। विषम परिस्थतियों में गुजर-बसर करने वाले आदिवासियों को जलावन लकड़ी के लिए सूखे पेड़ों को काटने से मना कर दिया गया। और तो और आदिवासियों की मौलिक-संस्कृति की खास पहचान ‘पारंपरिक पोडू कृषि पद्धतिÓ पर भी पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया। गौरतलब है कि आंध्र प्रदेश के वर्तमान गोदावरी जिले की पहाडिय़ों के 700 वर्ग मील क्षेत्रफल में फैले रंपा इलाके की जनजातीय आबादी हर साल जंगल के कुछ सुनिश्चित क्षेत्र में खरपतवारों को जलाकर जमीन की निराई-गुड़ाई करके उसमें फसल उत्पादन कर अपनी रोजी-रोटी की पूर्ति करती है। फसल उत्पादन की यह स्थानीय परंपरा पोडू या झूम खेती के नाम से जानी जाती है। ब्रिटिश हुकूमत द्वारा पोडू खेती-किसानी पर लगाया गया प्रतिबंध रंपा इलाके में आदिवासियों की बगावत की वजह बन गया। इसकी बागडोर आदिवासियों के नेता अल्लूरी सीताराम राजू और कोमाराम भीम ने अपने हाथ में ले ली। शुरुआत में दोनों नेताओं ने गांधीवादी सिद्धांतों से अपने आंदोलन को आगे बढ़ाया। लेकिन, जब बाहरी साम्राज्यवादी सरकार को अहिंसात्मक भाषा समझ में नहीं आई तो वनवासियों ने सीताराम राजू के नेतृत्व में सशस्त्र विद्रोह का बिगुल बजा दिया। इस हथियारबंद आंदोलन को भारतीय इतिहास में ‘रंपा विद्रोह ‘ या ‘मान्यम विद्रोह ‘ के नाम से जाना जाता है। सीताराम राजू की नेतृत्व क्षमता व अदम्य साहस के सामने एक बार तो ब्रिटिश रेजिमेंट के सैनिकों में भगदड़ मच गई। ‘नैरेटिव ऑफ इवेंट्स ‘ दस्तावेजों में विवरण मिलता है कि सप्ताह भर चली घमासान लड़ाई में दोनों पक्षों के सैकड़ों सैनिक व क्रांतिकारी मारे गए। और 7 मई 1924 को सीताराम राजू को पकड़कर पेड़ से बांधकर गोरती नाम के सैन्य अधिकारी ने गोलियां बरसा दी। इस तरह से वनवासी क्रांतिवीर शहीद हो गया।
फिल्म के दूसरे किरदार हैं- कोमाराम भीम। कोमाराम भीम का ताल्लुक गोंड जनजाति से था। अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लेने के अलावा जनजातीय नेता कोमाराम भीम ने हैदराबाद की निजामशाही से मुक्ति के लिए आसफ जाही राजवंश के विरुद्ध भी संघर्ष किया। उसका युद्ध भी छापामार शैली का था। उसने निजाम के न्यायालयी आदेशों, कानूनों और उसकी प्रभुसत्ता को सीधे चुनौती दी और जंगलों के बीच रहकर हथियारबंद लड़ाई लड़ी। भीम को गोंड जनजातीय संस्कृति में ‘जल-जंगल-जमीन ‘ का नारा गढऩे वाले नायक के रूप में जाना जाता है, जो अन्याय, अतिक्रमण और शोषण के खिलाफ एक प्रतिमान बन गया। जल-जंगल-जमीन के उद्घोष ने आगे चलकर तेलंगाना राज्य में अनेक आदिवासी आंदोलनों के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
दरअसल, कोमाराम भीम ने 1920 के दशक में ब्रिटिश सरकार समर्थित जमींदारों के खिलाफ आवाज बुलंद की। कोमाराम का गुरिल्ला युद्ध 1940 तक चलता रहा, इस दौरान कोमाराम के हाथों कई जमींदार मौत के घाट उतार दिए गए। आखिर में निजाम ने 300 सिपाहियों की बटालियन जोड़ीघाट भेजकर कोमाराम की गुरिल्ला आर्मी पर भीषण आक्रमण कर दिया, जिसमें भीम और उसके साथी शहीद हो गए। अल्लूरी सीताराम राजू और कोमाराम भीम की शहादत आदिवासियों के आंदोलन में समय की शिला पर उकेरी गई ऐसी वीरगाथा है, जिसे मिटाया नहीं जा सकता।

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