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Patrika Opinion: अलगाववाद समर्थकों के मुंह पर तमाचा हैं नतीजे

चुनाव में अलगाववाद समर्थकों की हार उन विदेशी ताकतों के मुंह पर करारा तमाचा भी है जो देश में अशांति फैलाने के लिए मौके की तलाश में रहती हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि जम्मू-कश्मीर की नव निर्वाचित सरकार जनता की उम्मीदों पर खरी उतरेगी।

जयपुरOct 09, 2024 / 10:59 pm

Nitin Kumar

जम्मू-कश्मीर के सियासी दंगल में जीत-हार के कारणों का विश्लेषण हर बार की तरह इस बार भी लंबे समय तक चलने वाला है। हर राजनीतिक दल अपने-अपने तरीके से चुनावी नतीजों की समीक्षा करेगा ताकि अगले चुनाव में और अच्छा प्रदर्शन किया जा सके। जम्मू-कश्मीर के मतदाताओं ने चुनाव पूर्व गठबंधन को पूर्ण बहुमत प्रदान कर जोड़-तोड़ की संभावनाओं पर जिस तरह पानी फेरा है, उसने उनकी समझदारी का ही परिचायक दिया है। लेकिन केंद्र शासित प्रदेश के चुनावी नतीजों ने एक और सुकून दिया है। सुकून यह कि मतदाताओं ने आतंकवाद और अलगाववाद के समर्थक प्रत्याशियों को चारों खाने चित्त कर दिया।
विधानसभा चुनाव में जमात-ए-इस्लामी व अवामी इत्तेहाद पार्टी के कई प्रत्याशी मैदान में थे। देश के साथ दुनिया की निगाहें भी इन पर लगी थीं। लेकिन नतीजे आए तो अलगाववाद समर्थक राजनीतिक दल और उनके प्रत्याशियों को मुंह की खानी पड़ी। अपने भडक़ाऊ भाषणों से कश्मीर घाटी में नफरत की आग फैलाने वाले सरजन बरकाती और एजाज अहमद गुरु जैसे प्रत्याशी भी पांच सौ मतों के नीचे ही सिमट गए। नतीजों का संदेश यही निकला कि मतदाताओं ने उन लोगों को सिरे से नकार दिया जो केंद्र शासित प्रदेश में अशांति फैलाने की कोशिशों में जुटे रहते हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में सबसे अधिक २८ सीटें जीतकर सरकार बनाने वाली महबूबा मुफ्ती की पीडीपी भी इस बार महज तीन सीटों पर सिमट गई। पीडीपी को भी कट्टरपंथी पार्टी माना जाता है। पांच महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में पीडीपी की सबसे बड़ी नेता महबूबा मुफ्ती स्वयं हार गई थीं। इस बार उनकी पुत्री को विधानसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। पीडीपी भी उन्हीं सीटों पर जीती है, जो आतंकवाद प्रभावित हैं।
कट्टरपंथियों की हार न सिर्फ जम्मू-कश्मीर बल्कि पूरे देश के लिए सुखद संकेत है। खासकर तब, जब देश पिछले चार दशकों से आतंकवाद की आग में सुलगता रहा है। पिछले कुछ समय से कश्मीर घाटी अपेक्षाकृत शांत है। विधानसभा चुनाव में मतदान का प्रतिशत बढऩा इस बात का स्पष्ट संकेत है कि जम्मू-कश्मीर के मतदाता आतंकवाद अथवा अलगाववाद को पनपने नहीं देना चाहते। कश्मीर घाटी ने वह दौर भी देखा है जब अलगाववादियों के आह्वान पर आए दिन बंद होता था। एक आवाज पर पूरी घाटी थम जाती थी। धीरे-धीरे ऐसे लोगों को समर्थन मिलना बंद होता गया। चुनाव में अलगाववाद समर्थकों की हार उन विदेशी ताकतों के मुंह पर करारा तमाचा भी है जो देश में अशांति फैलाने के लिए मौके की तलाश में रहती हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि जम्मू-कश्मीर की नव निर्वाचित सरकार जनता की उम्मीदों पर खरी उतरेगी।

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