हालांकि अधिकारियों का कहना है कि ‘नॉर्मलाइजेशन’ प्रक्रिया में किसी को पूर्णांक से ज्यादा तो किसी को शून्य से कम अंक भी मिल सकते हैं, क्योंकि औसत आधार पर सभी अभ्यर्थियों के अंक बढ़ाए या घटाए जाते हैं। हालांकि अधिकारियों का यह जवाब ही समूची प्रक्रिया पर प्रश्नचिह्न की तरह है। इसका मतलब यही है कि परीक्षा में पूछे गए सवाल उतने कठिन नहीं थे, जितने बताकर प्राप्तांक में औसत बढ़ोतरी की गई है। दरअसल, ‘नॉर्मलाइजेशन’ का उद्देश्य परीक्षा के कठिनाई के स्तर को समान करना होता है, ताकि सभी के साथ न्याय हो सके। एक ही विषय की परीक्षा कई सत्रों में अलग-अलग प्रश्नपत्रों के साथ होने पर तुलनात्मक रूप से कठिन सवाल पूछे जाने पर दूसरे सत्र के अभ्यर्थियों को अनुचित लाभ न हो, इसे संतुलित करने के लिए ‘नॉर्मलाइजेशन’ की प्रक्रिया अपनाई जाती है। इसमें औसत आधार पर अंकों को कम या ज्यादा करके प्रतिस्पर्धा को संतुलित किया जाता है।
यदि किसी सत्र में सवाल ऐसे थे कि अभ्यर्थी पूर्णांक के करीब पहुंच गया तो उसके अंक औसत बढ़ोतरी के बाद पूर्णांक से ज्यादा हो गए। बहरहाल, यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा कि वाकई इस प्रक्रिया में कोई भ्रष्टाचार हुआ या नहीं, लेकिन जब समूची प्रक्रिया पर शक हो रहा है तो इसे जांचने में क्या हर्ज है? ‘नॉर्मलाइजेशन’ प्रक्रिया पर बार-बार सवाल उठ रहे हैं और वह भी अलग-अलग राज्यों में तो सरकारों को चाहिए कि किसी सक्षम स्तर का पैनल बनाकर जांच करे और ताकि अभ्यर्थियों की शंका का समाधान हो सके। आखिर यह लाखों अभ्यर्थियों के भविष्य की बात है, जो स्वयं को ठगा महसूस कर रहे हैं।