साहित्य प्रेमी जानते ही हैं कि कामायनी की आत्मा में मनुष्यता की चिंता है। एक ओर मूल्यों का पतन, जीवन में पसरती निराशा, तो इसी गुबार के बीच चमकती उम्मीद फिर नए नीड़ के निर्माण की प्रेरणा बन जाती है। देव संस्कृति के वैभव और विलासिता ने जब मर्यादा की सीमाएं लांघ दीं, तो परमशक्ति का क्रोध प्रलय बनकर प्रकट हुआ। देवों का नाश हुआ। एक ही प्रतिनिधि बचे मनुष्यता के प्रथम पिता – मनु, जो कामायनी यानी स्त्री पात्र श्रद्धा के सहचर बनकर तमाम संशयों, उलझनों और सवालों के समाधान तलाशते हुए फिर नए जीवन का सपना देखते हैं।
कामायनी का कथानक ज्ञान, कर्म और इच्छा के बीच समरसता की स्थापना है। जब प्रसाद कहते हैं कि ‘प्रकृति के यौवन का शृंगार, कभी न करेंगे बासी फूलÓ तो आशय स्पष्ट है कि नई सोच, नई संकल्पना से ही जीवन की मूरत गढ़ी जा सकती है। यहां आत्ममंथन जीवन का नया उजाला देता है। भारत ही नहीं, दुनिया के दीगर मुल्कों के साहित्य प्रेमियों के लिए कामायनी इस दारुण दौर में विचार का संबल देने वाली पुस्तक साबित हो सकती है। निश्चय ही कामायनी का पुनर्पाठ मन की बेचैनी को शांत करता है। उसका छंद यकीन देता है – ‘दु:ख की पिछली रजनी बीच, विकसता सुख का नवल प्रभात।’
(लेखक कला साहित्य समीक्षक हैं व टैगोर विश्वकला एवं संस्कृति केंद्र के निदेशक हैं)