अफगानिस्तान से अमरीका को आखिरकार इसलिए भागना पड़ा क्योंकि उसकी लड़ाई वहां मानवीय मूल्यों को स्थापित करने की थी ही नहीं। अलकायदा को तहस-नहस करने के बाद तालिबान से समझौता करके उसने अफगानिस्तान को उसके हाल पर छोड़ दिया। ‘अच्छे आतंकवादी’ और ‘बुरे आतंकवादी’ जैसे कुतर्कों का सहारा लेकर अमरीका ने दुश्मनों से हाथ मिलाकर यह साबित किया कि जिन मानवीय मूल्यों और आदर्शों की पहरेदारी के नाम पर वह दुनिया में धौंस जमाता रहा है, दरअसल उसके लिए उनका कोई खास मतलब नहीं है। ऐसी सोच ही उसकी हार का कारण है। इसलिए रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का यह कहना बिल्कुल सही है कि अमरीका को ‘शून्य’ हासिल हुआ।
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दरअसल, जिस चश्मे से अमरीका व यूरोप के देश अफगानिस्तान को देखते रहे हैं, वही गड़बड़ है। संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी आगाह किया था कि आतंकवाद चाहे दुनिया में कहीं भी हो, उसके साथ एक जैसा सलूक करना होगा। अब तालिबान को लेकर दुनिया ऊहापोह में है।
पाकिस्तान, चीन और रूस जैसे कई देशों को उसके साथ संबंध रखने में फिलहाल कोई समस्या नहीं दिखती, अगर तालिबानी उनके लिए परेशानी खड़ी नहीं करते। लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि दुनियाभर में बंदूकों की ‘जुबान’ एक ही है। आज नहीं तो कल वह मानवता के खिलाफ ही चलेगी। यदि लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले सभी देश साफ कर दें कि जब तक अफगानिस्तान में डर का शासन रहेगा, तालिबान से कोई संबंध नहीं रखेंगे तो हो सकता है कोई सकारात्मक बदलाव आए। आज नहीं तो कल। गांधी की तरह, विपरीत परिस्थितियों में भी इस उम्मीद को बचाए रखने में ही दुनिया की भलाई है।