एक अदृश्य तथ्य यह है कि पति की मृत्यु के बाद महिलाएं लंबे समय तक अकेले रहती हैं। भारत में लगभग 1.5 करोड़ वृद्ध लोग अकेले रहते हैं और उनमें से अधिकांश महिलाएं हैं। अकेले रहने का चुनाव और अकेले रहने के लिए मजबूर होना, दोनों में अंतर है और इसमें बाद की स्थिति अधिक अहम और चिंता का विषय है। पश्चिम देशों के विपरीत, भारत लंबे समय तक अपनी अधिसंख्य आबादी के लाभदायक रोजगार तक पहुंचने और बुढ़ापे के लिए बचत करने में सक्षम होने से पहले ही बूढ़ा हो रहा है। वृद्धावस्था की गरीबी, शहरी और ग्रामीण भारत में एक वास्तविकता है और यह तत्काल नीतिगत चिंता का विषय है। अधिकांश विकासशील देशों में यह धारणा है कि उनके वृद्ध लोग कार्य या पेंशन बचत से आत्मनिर्भर होंगे या अपनी संतानों से सहायता प्राप्त करेंगे। पर मौजूदा सार्वजनिक नीतियां प्राय: संतानोचित सहायता प्रणालियों को प्रोत्साहित करने या वृद्धों को लंबे समय तक लाभकारी काम की गारंटी देने में विफल रही हैं।
जहां कुछ देशों ने बुजुर्गों के लिए सार्वभौमिक पेंशन प्रदान करने का निर्णय लिया है, वहीं भारत ने साधन-संपन्न गैर-योगदान वाली पेंशन को चुना है। हालांकि, कवरेज की सीमा और महंगाई के कारण पेंशन का मामूली साबित होना वैध चिंताएं हैं। वर्तमान में विधवा पेंशन के लिए आयु सीमा 65 वर्ष है। इसे बीपीएल आय समूह में जीवन प्रत्याशा और विपन्न जीवन के बीते वर्षों के साथ सुसंगत करने की आवश्यकता है। चूंकि पेंशन की राशि बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए बेहद कम होती है, इसलिए अधिकांश वृद्ध सक्षम रहने तक अक्सर कठिन परिस्थितियों में काम करना जारी रखते हैं और वर्तमान नीति अत्यधिक कमजोर वृद्ध लोगों को काम से विराम दिलाने में विफल है।
शहरी वृद्धावस्था के कई पहलू हैं। पहला, संतानों द्वारा पारिवारिक जिम्मेदारी के तहत वृद्ध लोगों की जरूरतों को पूरा करने की शहरी मान्यता सवालों के घेरे में है, क्योंकि भारत में संयुक्त परिवार प्रणाली का धीरे-धीरे क्षरण हो रहा है। युवा पीढ़ी घरों से दूर होती जा रही है, परिणामस्वरूप या तो वे अपने माता-पिता को पीछे छोड़ रहे हैं या एकल परिवारों में स्थानांतरित हो रहे हैं। दूसरा, जब वृद्ध माता-पिता अपने वयस्क बच्चों के साथ शहरी क्षेत्रों में आकर बसते हैं तब भी बच्चों से उन्हें यथोचित मदद नहीं मिल पाती क्योंकि बच्चे स्थिर आय प्राप्त करने के लिए संघर्षरत होते हैं और माता-पिता की आवश्यकताओं एवं अपनी पारिवारिक जरूरतों के बीच फंसे रहते हैं। तीसरा, यदि वृद्ध लोग कानूनी सेवानिवृत्ति की आयु से आगे भी काम करते हैं तो वे आत्मनिर्भर हो सकेंगे। हालांकि यह तर्क पहली नजर में आश्वस्तिपूर्ण लगता है, लेकिन वास्तविकता से दूर है। सेवानिवृत्ति की उम्र के बाद अवसर पाना एक बड़ी चुनौती है क्योंकि रोजगार बाजार पूरी तरह से हमारी जनसंख्या का लाभ उठाने में असमर्थ है। सौभाग्यवश वृद्ध पुरुष तो अवसर पा भी सकते हैं, पर वृद्ध महिलाएं अक्सर वंचित ही रह जाती हैं और अक्सर घर के पास ही कम वेतन वाले अनियमित काम करने को मजबूर होती हैं। यहां यह सवाल उचित है कि क्या मौजूदा सार्वजनिक बुनियादी ढांचा, परिवहन तंत्र, सामाजिक मानदंड व बाजार की स्थिति वृद्ध महिलाओं को लाभकारी रोजगार खोजने और प्राप्त करने में सक्षम बना सकते हैं? रोजगार बाजार स्पष्टत: उन नुकसानों की भरपाई में असमर्थ है, जो एक महिला पूरे जीवन चक्र के दौरान झेलती है। फिर यह तथ्य भी है कि पुरुषों की तुलना में वे बहुत कम संसाधन जुटा पाती हैं।
इस प्रकार शहरी वृद्धावस्था का परिदृश्य, बदलती सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों और जटिलताओं में उलझा हुआ है। शहरी परिदृश्यों में सार्वजनिक बुनियादी ढांचे के लिए लैंगिक तौर पर संवेदनशील और उम्र के अनुकूल कार्यक्रमों की कमी के कारण अदृश्य असमानताएं और गहरी, व्यापक एवं दीर्घकालिक हो रही हैं। ऐसी नीतियों की आवश्यकता है जिनसे वृद्ध लोगों, विशेष रूप से महिलाओं, के जोखिमों को कम किया जा सके, स्वास्थ्य देखभाल व्यय का बोझ कम या समाप्त किया जा सके और वृद्धावस्था के लिए सुरक्षित और मददगार वातावरण बनाया जा सके। ताकि वृद्ध पुरुष और महिलाएं दोनों ही अपने कार्य जीवन को आगे बढ़ा सकें। जाहिर है कि यह सुनिश्चित करने के लिए नीति-निर्माताओं को आयु-संवेदनशील और लिंग-उत्तरदायी सुसंगत नीतियों तैयार करनी होंगी।
(सह-लेखक: अशिता विजयन, एकेडमिक एसोसिएट, सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी, आइआइएम बेंगलूरु)