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हिंदी की लघु पत्रिकाएं

विभिन्न माध्यमों से अपसंस्कृति के लगातार प्रसार से इन बीते वर्षों में साहित्य के समक्ष चुनौतियां बढ़ी ही हैं। ऐसे समय में लघु पत्रिकाओं के महत्त्व और जरूरत पर बात करना प्रासंगिक हो जाता है।

Sep 09, 2018 / 01:16 pm

सुनील शर्मा

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– पल्लव, कवि और आलोचक

किसी भाषा और संस्कृति में साहित्य की वाहक उसकी पत्रिकाएं होती हैं जो पाठकों को नई रचनाशीलता से जोडक़र उन्हें वृहत्तर साहित्य संसार में ले जाती हैं। हिंदी में भी ऐसा है और कुछ बड़ी तथा व्यावसायिक साहित्यिक पत्रिकाओं से हटकर लघु पत्रिकाओं का व्यापक आंदोलन वर्षों से सक्रिय है।
लघु पत्रिकाएं उन पत्रिकाओं को कहा गया जो छोटी पूंजी से गैर व्यावसायिकता के साथ सामाजिक प्रतिबद्धता से साहित्य-संस्कृति की पत्रकारिता करती हैं। हिंदी में सत्तर के दशक में सेठाश्रयी पत्रकारिता के बरक्स लघु पत्रकारिता का आंदोलन खड़ा हुआ था। जयपुर में वर्ष 2001 में लघु पत्रिकाओं का चौथा राष्ट्रीय सम्मलेन आयोजित किया गया था और तभी यह तय हुआ था कि हर साल 9 सितम्बर को लघु पत्रिका दिवस मनाया जाएगा।
सम्प्रति हिंदी में लगभग चार सौ नियतकालिक-अनियतकालिक लघु पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं। देश के अलग-अलग कोनों से निकलने वाली इन पत्रिकाओं को घनघोर व्यावसायिक दबावों में साहित्य-संस्कृति की सच्ची प्रतिनिधि माना जा सकता है।
असल बात यह है कि सत्ता की मुखापेक्षिता से साहित्य का सनातन बैर है। ऐसे में व्यावसायिक हुए बिना स्वाधीन विचारों की रक्षा करना चुनौतीपूर्ण होता है। अकेले राजस्थान में ही लहर, बिंदु, क्यों, चर्चा, तटस्थ, वातायन, पुरोवाक, सम्बोधन, शेष, अक्सर, एक और अंतरीप, सम्प्रेषण, कृति ओर, अभिव्यक्ति, लूर, कुरजां सन्देश जैसी कई लघु पत्रिकाएं सदैव इस बात की गवाही देती रही हैं कि साहित्य की स्वाधीनता वस्तुत: लोकतंत्र की स्वाधीनता ही है।
विभिन्न माध्यमों से अपसंस्कृति के लगातार प्रसार से इन बीते वर्षों में साहित्य के समक्ष चुनौतियां बढ़ी ही हैं। ऐसे समय में इन लघु पत्रिकाओं के महत्त्व और जरूरत पर बात करना प्रासंगिक हो जाता है।
मुख्यधारा का मीडिया बाजार की शक्तियों के दबाव से साहित्य और संस्कृति के लिए पहले जितना सुलभ नहीं बचा है, वहीं छोटे और सीमित साधनों वाली ये पत्रिकाएं ही हैं जो दृढ़ता से पाठकों के सांस्कृतिक बोध को उन्नत कर सकती हैं। वैश्वीकरण और बाजारवाद के भयानक सांस्कृतिक आक्रमण से हमारे मूल्य तिरोहित हो रहे हैं, लघु पत्रिकाएं इस अपसंस्कृति के खिलाफ सांस्कृतिक चेतना की वाहक हैं।

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