सोशल मीडिया पर कम उम्र से ही बच्चों की सक्रियता को लेकर जो खतरे सामने आ रहे हैं उन्हें देखते हुए इस तरह का सख्त कदम उठाना जरूरी-सा हो गया है। वजह भी साफ है। बच्चों को स्मार्ट फोन थमा कर अभिभावक और स्कूलों में शिक्षक तक अपनी जिम्मेदारी से विमुख होते दिख रहे हैं। स्कूलों में कहीं सिर्फ किताबी ज्ञान हावी है तो कहीं पूरा जोर सिर्फ गैर-शैक्षणिक गतिविधियों पर है। अर्थप्रधान दुनिया में माता-पिता के पास भी बच्चों के साथ समय बिताने की फुर्सत नहीं है। इस तरह बच्चों का न तो शिक्षकों से और न ही परिजनों से ज्यादा संवाद हो पाता है। इसी संवादहीनता के चलते बच्चों ने मोबाइल फोन और सोशल मीडिया को संवाद का जरिया बना लिया है। इससे बच्चों को पढ़ाई में एकाग्रता की कमी तो महसूस हो ही रही है, स्वास्थ्य समस्याएं भी बढ़ रही हैं। चिंता की बात यह भी है कि सोशल मीडिया प्लेटफार्म बच्चों के लिए उम्र सीमा का प्रावधान तो कर देते हैं पर निगरानी का कोई मैकेनिज्म उनके पास नहीं होता है। एक चिंता यह भी कि सोशल मीडिया प्लेटफार्म बच्चों को आकर्षित करने वाली सामग्री परोसने में पीछे नहीं रहते। ऑस्ट्रेलिया सरकार कानून बनाने जा रही है तो निश्चित ही इस प्रावधान को लागू करने का बंदोबस्त भी किया होगा। यह बात और है कि वहां भी बच्चों को सोशल मीडिया से दूर रखने पर सवाल उठने लगे हैं। यू-ट्यूब जैसे सोशल मीडिया मंचों को हालांकि इस पाबंदी से दूर रखा गया है।
ऑस्ट्रेलिया की तरह भारत में भी ऐसा ही सख्त कानून बनने की दरकार है। पर बड़ी समस्या यह भी है कि बच्चों की उम्र की तस्दीक किस माध्यम से की जाएगी। क्योंकि आधार जैसे पहचान-पत्र के दुरुपयोग के खतरे भी कम नहीं हैं। वस्तुत: अभिभावकों की जिम्मेदारी बच्चों पर निगाह रखने की है तो सरकारों की जिम्मेदारी बच्चों के लिए सुरक्षित डिजिटल वातावरण बनाने की है।