नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:।।
गीता 2.23
अर्थात्-शस्त्र इस आत्मा को काट नहीं सकते, अग्नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती।
कर्मों के फलों को भोगने के लिए प्रकृति भिन्न-भिन्न शरीरों का भ्रमण कराती रहती है। तब प्रश्न उठना सहज ही है कि माता-पिता किसको जन्म देते हैं? शरीर को? शरीर तो पंच महाभूतों की सृष्टि है। अत: पुन: पंच तत्त्वों में ही लीन हो जाता है। तब तक माता-पिता भी जा चुके होते हैं। कैसी पहेली है जीवन भी! आगे बढ़ता जाता है और पीछे के चिह्न स्वयं ही मिटाता जाता है।
पृथ्वी का निर्माण जल तत्त्व से होता है, यद्यपि अन्य तीन महाभूत-आकाश, वायु, अग्नि भी जल के गर्भ में ही रहते हैं। हमारा शरीर (पृथ्वी) भी जल से ही उत्पन्न होता है। पृथ्वी के भीतर सात धरातल होते हैं-अतल-वितल-सुतल-तलातल-महातल-रसातल और पाताल। जल से भी सात परतों में पृथ्वी बनती है – बुद्बुद्-फेन-मृदा-सिकता-शर्करा-अश्मा-हिरण्य। हमारे शरीर में भी सप्त धातु होते हैं-रस, रक्त, मांस, मज्जा, अस्थि, मेद और शुक्र।
पिता बीज और माता धरती है। धरती ने पेड़-शरीर दिया। जैसी आकृति बीज में निहित थी, पेड़ का उसी आकृति-प्रकृति में निर्माण होता है। हां, रेत-शुक्र के मात्रा भेद से नर-मादा का स्वरूप तय होता है। तना-डालियां-शाखाएं, पत्ते, फूल तक का निर्माण होता है। वृक्ष के सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंग इस प्रक्रिया में भागीदार बनते हैं।
रेत में भी पिता के सम्पूर्ण अंगों का स्वरूप रहता है। पेड़ के विकास में दोनों साथ-साथ चलते हैं। फल का स्वरूप-रस-स्वाद-रंग-रूपादि रेत यानी पिता के अनुरूप ही होता है। माता के संस्कारों से अलग-अलग भू-भाग के फलों का स्वरूप, रस, स्वाद बदलते हैं। पांचों महाभूत (जलवायु रूप में) अन्य विभागों को पूर्णता प्रदान करते हैं। फल आने तक माता-पिता रूप बीज-पृथ्वी ही शरीर में कार्य करते हैं।
आमतौर पर दो स्थानों के मध्य आने-जाने का मार्ग एक ही होता है, किन्तु इस में मेरे आने-जाने का मार्ग एक नहीं है। मेरे आते ही मार्ग लौटने के लिए बन्द हो गया। मुझे यह भी नहीं बताया गया कि मुझे यहां कैसे बड़ा होना है, बड़े होकर क्या करना है। कम से कम यहां आने में मेरी भूमिका तो दिखाई नहीं पड़ती।
मां-बाप ने शरीर को पैदा किया, वे ही पूरी उम्र शरीर में कार्य भी करेंगे। मैं फिर क्या करूंगा (आत्मा पुल्लिंग है)? मैं शरीर के बाहर कार्य करूंगा। यदि शरीर के भीतर गया तो माता-पिता का सूत्र पकड़ लूंगा। कैसा आश्चर्य है कि इस मेरे शरीर को मैं नहीं माता-पिता चलाते हैं।
शरीर ही ब्रह्माण्ड: मैं ही विराट्
बाहरी जीवन के दो मुख्य धरातल होते हैं-जीवनयापन और जीव इच्छा की पूर्ति। इसको भी मन के साथ ऊध्र्वगामी अथवा अधोगामी मार्ग के बीच द्वन्द्वात्मक स्थिति में देखा जा सकता है। एक धरातल है पूर्व जन्म के संस्कारों का भोग-प्रारब्ध को जीना। ये मेरे अपने पिछले कर्मों के फल हैं जो इस शरीर में भोगने हैं। इसमें भी मैं कोई परिवर्तन नहीं कर सकता।मेरी मजबूरी देखिए! न तो मुझे यह मालूम कि मुझे क्यों जीना है और न ही यह मालूम कि जहां से आया, मुझे वहां कैसे लौटना है। लोग यह कहते हैं कि यह शरीर अस्थायी निवास है। पता नहीं कब खाली करना पड़ जाए। यानी कि आगे भी अंधेरा ही अंधेरा। अपने दिमाग से, मन की इच्छा से कुछ करता हूं तो भविष्य में इन कर्मों के फल भी निश्चित है।
इस भूल-भुलैया से बाहर वही निकल सकता है जो लौटने का मार्ग जानता हो। उस पर चलने का अनुभव हो। चूंकि यह मार्ग सूक्ष्म से होकर गुजरता है, अत: कोई प्रज्ञावान ही मेरा सहायक हो सकता है। मैं नहीं पहुंच सकता उस प्रज्ञावान तक। यदि मेरे मन में उत्कट जिज्ञासा है, उत्कण्ठा है, तो प्रज्ञा पुरुष स्वयं ही इससे आकर्षित होकर आ जाएगा। मन के तार झंकृत हो उठेंगे। मान लेना यही है वह। मन अनायास ही समर्पित हो उठेगा। देखते ही देखते गुरु का प्रवेश जीवन में हो जाएगा।
शरीर ही ब्रह्माण्ड: शरीर ही त्रिकाल है
अब तक मेरा जीवन मन-प्राण-वाक् की ओर चल रहा था। गुरु आनन्द-विज्ञान की ओर मोड़ देगा। माता-पिता ने ”एकोऽहं बहुस्याम्” के लिए मुझे जगत में बुलाया था। जन्म का उद्देश्य पूरा करने के बाद जीवन का क्या करें, इसके लिए गुरु दोबारा जन्म देता है, द्विज बनाता है। दूसरी यात्रा के लिए तैयार करता है।जिस ईश्वर का अंश लेकर आया, उस अंशी में पुन: मिलाना है। अत: कहा जाता है-”गुरुर्साक्षात् परब्रह्म: तस्मै श्री गुरवे नम:।” राम और कृष्ण तो अवतार पुरुष थे। उनके भी गुरु थे। जैसे ईश्वर का कोई विकल्प नहीं है, वैसे गुरु का भी विकल्प नहीं है। आत्मा और परमात्मा के मध्य का सेतु है गुरु। आपमें परमात्मा बन पाने की क्षमता का विकास करता है।
इस शरीर में एक ओर माता-पिता स्वयं कर्मरूप यात्रा करते हैं, दूसरी ओर गुरु ज्ञानरूप यात्रा करता है। शरीर एक मार्ग है, बस। अत: मैं शरीर नहीं हूं। यहां पुनर्विचार करने की आवश्यकता है – मैं कौन हूं! आत्मा के दोनों धातु- ज्ञान और कर्म किसके नियंत्रण में हैं। क्रमश: