हमारे देश में शिक्षा व्यवस्था कितनी प्रभावी है, उसका संकेत विद्यार्थियों के शैक्षिक स्तर से ही मिलता है। यदि हम नवीनतम रिपोर्ट की 2008 से तुलना करें तो पाते हैं कि आज विद्यार्थियों की योग्यता का स्तर तब से 18 प्रतिशत कम है। ये औसत राष्ट्रीय आंकड़े हैं। राज्यों के हिसाब से देखें तो वहां बड़ी असमानताएं दिखती हैं। सबसे बड़ी चिंताजनक बात यह है कि प्रथम की ये रिपोर्ट बार-बार संकेत दे रही हैं कि सरकारी स्कूलों की उत्पादकता में व्यापक रूप से गिरावट आ रही है। रिपोर्ट में सामने आए आंकड़े एक भयानक तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। प्राइमरी स्कूलों की खराब हालत के साथ अब जूनियर (14 से 18 साल) स्तर का भी हाल अच्छा नहीं है। जैसे 76 फीसदी बच्चे पैसे तक नहीं गिन पाते। देश की आबादी में 14-18 साल तक के बच्चों की संख्या करीब 10 फीसदी है, जिनकी उत्पादकता का सीधा असर देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है, जिसे बाजार नियंत्रित अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का जबरदस्त सामना करना है।
शिक्षा के अधिकार का कानून (राइट टु एजुकेशन) भले ही ज्यादा से ज्यादा बच्चों का स्कूल में पंजीकरण कराने में कामयाब रहा हो और इस कानून से स्कूल छोडऩे वाले छात्रों की संख्या में कमी आई हो, लेकिन पढ़ाई के स्तर में कोई खास सुधार हुआ नजर नहीं आता है। सच बात तो यह है कि हम एक शिक्षित राष्ट्र बनने के लक्ष्य से अभी कोसों दूर हैं। फिलहाल यह दूरी निकट भविष्य में खत्म करना असंभव-सा ही नजर आ रहा है। यही वजह है कि बहुत से लोग अब यह भी कहने लगे हैं कि अभी हम जिस तरह की शिक्षा व्यवस्था पर निर्भर कर रहे हैं, वह नकारा हो चुकी है। शिक्षाविदों ने इसे ठीक करने के लिए अनेक विचार और सुझाव दिए हैं। मगर जब तक राज्य की प्रशासनिक मशीनरी एक काबिल नेतृत्व में शिक्षा की हालत सुधारने के लिए प्रतिबद्धता वाली नहीं होगी और एक प्रेरक प्रशासनिक तंत्र को नीति निर्धारकों का पूरा समर्थन नहीं मिलेगा, तब तक हालात का सुधरना संभव नहीं लगता। गैर सरकारी संगठन हालात को सुधारने में मददगार हो सकते हैं, परंतु प्रशासन का साथ मिले बिना वे भी कुछ नहीं कर पाएंगे।
हालांकि ‘असर’ उन संभावित वजहों में नहीं जाती, जो स्कूली विद्यार्थियों की अयोग्यता के लिए जिम्मेदार हैं, मगर उसके आंकड़ों को कुछ नीतिगत परिवर्तनों से जोडऩा स्वाभाविक होगा ताकि हालत को सुधारने के लिए ठोस कदम उठाए जा सकें। हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों और नीति-निर्माताओं को चाहिए कि वे दूसरे विषयों और मसलों को थोड़ी देर के लिए अलग रख कर शिक्षा व्यवस्था को सर्वोच्च प्राथमिकता दें और इसमें गहराई तक जड़ें जमा चुकी बुराइयों और खामियों को दूर करने पर और इसके सुदृढ़ीकरण पर ध्यान केंद्रित करें। गुणवत्ता वाली शिक्षा के लिए स्कूलों के भौतिक ढांचे को विकसित करने के साथ बेहतर शिक्षण भी सुनिश्चित करना होगा और पाठ्यक्रम की महत्ता भी समझनी होगी। अकेले विद्यार्थियों को केंद्र में रख कर भी शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह नहीं सुधारा जा सकता। विद्यार्थियों के परिवेश को भी उन्नत करना होगा, जिसके लिए बहुआयामी रणनीति बनानी पड़ेगी। दुर्भाग्य की बात है कि स्कूली शिक्षा की इस बुरी हालत को सुधारने के लिए हमारे यहां कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं बनता। विकास की योजनाओं में शिक्षा बहुत ऊंचा स्थान नहीं पाती। दुनिया भर में विकास की राह शिक्षा के साथ ही शुरू हुई है। मगर हम यहीं पर चूक कर जाते हैं। ‘मेक इन इण्डिया’ का सपना देने वाले भी यह आधारभूत बात भूल जाते हैं कि गुणवत्ता वाली शिक्षा के बिना यह सपना पूरा नहीं हो सकता।