scriptशिक्षा व्यवस्था को राजनीति से दूर रखने का प्रयास जरूरी | It is necessary to try to keep the education system away from politics. In any country, keeping education above political inclinations would be considered the ideal system. Educational institutions are such temples where not only people of different castes and religions but also people with different political inclinations come to bow their heads before the goddess of learning. It is unfortunate that even after 75 years of independence, we are discussing what the education system should be? Whereas not only all the major political parties, but also other stakeholders should unanimously prepare such a strong foundation of the education system that there is no need to change it again and again. But exactly the opposite is happening in our country. The new issue is of change in the rules of University Grants Commission (UGC), the draft of which has created a ruckus not only among the educationists but also among the political parties. Unfortunately, its support and opposition is also being done on the basis of political convenience. In the new draft of UGC, it has been advocated to give more rights to the Chancellor, who is also the Governor, in the appointment of state universities. Since the governor is the representative of the central government, the states fear that the central government will act arbitrarily through him and the equation of political gains and losses of the party in power in the state will be disturbed. In addition to academicians, the draft also proposes a provision to appoint personalities from the industry and the public sector as vice-chancellors. Academicians are looking at this proposal as an external interference in their jurisdiction. They see their dominance in the temple of education coming to an end. The arguments of both the sides, the proposals for changes in the rules and those opposing them, cannot be dismissed outright. Especially in a situation when there has been a long history of the role of governors and unwanted central interference through them. In this background, after Tamil Nadu, now Kerala has passed a resolution in the assembly against the possible changes in the UGC. That is, a new front of conflict has opened between the governors and the state governments. Universities provide the ideological basis for development. Keeping it free from all kinds of demands is the first condition of academic freedom. We also learn here how to do politics and be free from its prejudices. The insistence that there should be no politics here would be as wrong as making it a hub of politics. Therefore, all parties will have to take steps free from insistence and prejudice. | Patrika News
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शिक्षा व्यवस्था को राजनीति से दूर रखने का प्रयास जरूरी

नया मामला यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन (यूजीसी) के नियमों में बदलाव का है, जिसका मसौदा सामने आने पर न सिर्फ शिक्षाविदों बल्कि, राजनीतिक दलों में घमासान मच गया है। दुर्भाग्यवश इसका समर्थन और विरोध भी राजनीतिक सुविधा के आधार पर हो रहा है।

जयपुरJan 23, 2025 / 05:31 pm

Hemant Pandey

यह दुर्भाग्य है कि आजादी के 75 साल के बाद भी हम इस पर चर्चा कर रहे हैं कि शिक्षा व्यवस्था क्या होनी चाहिए? जबकि न सिर्फ सभी प्रमुख राजनीतिक दलों बल्कि, अन्य भागीदारों को भी सर्वसम्मति से शिक्षा-व्यवस्था का ऐसा पुख्ता आधार तैयार करना चाहिए जिसे बार-बार बदलने की आवश्यकता ही न पड़े। लेकिन अपने देश में ठीक इसका उल्टा हो रहा है।

यह दुर्भाग्य है कि आजादी के 75 साल के बाद भी हम इस पर चर्चा कर रहे हैं कि शिक्षा व्यवस्था क्या होनी चाहिए? जबकि न सिर्फ सभी प्रमुख राजनीतिक दलों बल्कि, अन्य भागीदारों को भी सर्वसम्मति से शिक्षा-व्यवस्था का ऐसा पुख्ता आधार तैयार करना चाहिए जिसे बार-बार बदलने की आवश्यकता ही न पड़े। लेकिन अपने देश में ठीक इसका उल्टा हो रहा है।


किसी भी देश में शिक्षा को राजनीतिक रुझानों से ऊपर रखना ही आदर्श व्यवस्था मानी जाएगी। शिक्षा संस्थान ऐसे मंदिर होते हैं जहां न सिर्फ अलग-अलग जाति-धर्म बल्कि, अलग-अलग राजनीतिक झुकाव वाले लोग विद्या की देवी के समक्ष शीश नवाने आते हैं। यह दुर्भाग्य है कि आजादी के 75 साल के बाद भी हम इस पर चर्चा कर रहे हैं कि शिक्षा व्यवस्था क्या होनी चाहिए? जबकि न सिर्फ सभी प्रमुख राजनीतिक दलों बल्कि, अन्य भागीदारों को भी सर्वसम्मति से शिक्षा-व्यवस्था का ऐसा पुख्ता आधार तैयार करना चाहिए जिसे बार-बार बदलने की आवश्यकता ही न पड़े। लेकिन अपने देश में ठीक इसका उल्टा हो रहा है।

नया मामला यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन (यूजीसी) के नियमों में बदलाव का है, जिसका मसौदा सामने आने पर न सिर्फ शिक्षाविदों बल्कि, राजनीतिक दलों में घमासान मच गया है। दुर्भाग्यवश इसका समर्थन और विरोध भी राजनीतिक सुविधा के आधार पर हो रहा है। यूजीसी के नए मसौदे में कुलाधिपति, जो राज्यपाल ही होते हैं, को राज्य विश्वविद्यालयों की नियुक्ति में ज्यादा अधिकार देने की वकालत की गई । चूंकि राज्यपाल केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है, इसलिए राज्यों को डर है कि उसके माध्यम से केंद्र सरकार मनमानी करेगी और राजनीतिक नफा-नुकसान में राज्य की सत्ता पर आसीन दल का समीकरण गड़बड़ा जाएगा। मसौदे में शिक्षाविदों के अतिरिक्त उद्योग जगत और सार्वजनिक क्षेत्र की हस्तियों को कुलपति नियुक्त करने के प्रावधान का भी प्रस्ताव है।
शिक्षाविद इस प्रस्ताव को अपने अधिकार क्षेत्र में बाहरी दखल के रूप में देख रहे हैं। उन्हें शिक्षा के मंदिर में अपना वर्चस्व खत्म होता दिख रहा है। नियमों में बदलाव के प्रस्तावों और उनका विरोध दोनों ही पक्षों के तर्कों को एकदम से खारिज नहीं किया जा सकता। खासकर ऐसी स्थिति में जब राज्यपालों की भूमिका और उनके माध्यम से अवांछित केंद्रीय दखल का लंबा इतिहास रहा हो। इसी पृष्ठभूमि में तमिलनाडु के बाद अब केरल ने यूजीसी में संभावित बदलाव के खिलाफ विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर दिया है। यानी राज्यपालों और राज्य सरकारों में टकराव का नया मोर्चा खुल गया है।

विश्वविद्यालय विकास का वैचारिक आधार प्रदान करते हैं। इसे हर तरह के आग्रहों से मुक्त रखना अकादमिक स्वतंत्रता की पहली शर्त है। राजनीति करना और इसके दुराग्रहों से मुक्त होना भी हम यहीं सीखते हैं। यहां राजनीति न हो यह आग्रह भी उतना ही गलत होगा जितना यह कि इसे राजनीति का अड्डा ही बना दिया जाए। इसलिए सभी पक्षों को आग्रहों-दुराग्रहों से मुक्त होकर कदम उठाने होंगे।

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