देश में हर साल बढ़ जाते हैं 27 हजार से ज्यादा मूक-बधिर बच्चे
डॉ. शुभकाम आर्यवरिष्ठ ईएनटी विशेषज्ञ चाहे हम मृत्यु दर को कम करने में सफल रहे है, लेकिन विकलांगता का बोझ अभी भी बड़ी समस्या बना हुआ है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अनुमान के अनुसार, विश्व स्तर पर करीब 15 प्रतिशत आबादी किसी न किसी प्रकार की विकलांगता से ग्रसित है, जिसमें से 80 फीसदी […]
डॉ. शुभकाम आर्य
वरिष्ठ ईएनटी विशेषज्ञ चाहे हम मृत्यु दर को कम करने में सफल रहे है, लेकिन विकलांगता का बोझ अभी भी बड़ी समस्या बना हुआ है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अनुमान के अनुसार, विश्व स्तर पर करीब 15 प्रतिशत आबादी किसी न किसी प्रकार की विकलांगता से ग्रसित है, जिसमें से 80 फीसदी विकासशील देशों में रहते हैं। अनुमान है कि हर 1000 शिशुओं में से 5 को गंभीर श्रवण हानि होती है। एक आंकलन के अनुसार भारत में हर साल अमूमन 27 हजार से अधिक बच्चे बहरे पैदा होते हैं। मूक बधिर बच्चे वो है जो ना बोलते है ना सुनते है। इनके ना बोलने का कारण महज ना सुनना ही होता है। वास्तव में मूक बधिर बच्चे अभिशाप नहीं है, लेकिन भारत जैसे देश में उन्हें मुख्यधारा में लाना एक बड़ी सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती है। कई बार समय पर पता नहीं चल पाता और इलाज में देरी से आशाजनक परिणाम से ये बच्चे वंचित हो जाते हैं। सुनने की क्षमता में कमी जन्मजात भी हो सकती है। अगर जल्द ही यह पता चल जाए कि बच्चे के सुनने में कमी है तो उसके इलाज के बेहतर परिणाम आ सकते हैं।
बहरेपन के शिकार बच्चे भी अन्य बच्चों की तरह ही दिखते हैं। अन्य विकृतियों के विपरीत, कान के अंदर की समस्याएं दिखाई नहीं देती हैं। जागरूकता की कमी से सुनने की हानि को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है, इसलिए ज्यादातर मामलों में इनके निदान में देरी हो जाती है। मौजूदा हालात में जबकि ये जांचें व्यापक रूप से लागू नहीं है, बहुत से ऐसे बच्चे हैं जिनके अभिभावकों को देरी से पता लगता है। बोलने समझने में देरी देखकर ऐसे बच्चों की पहचान प्राय: डेढ़ से तीन साल की उम्र के बीच हो पाती है। शुरू के 3 साल बोलने व समझने का सबसे महत्त्वपूर्ण समय होता है क्योंकि इस समय मस्तिष्क सीखने के लिए विकसित और परिपक्व हो रहा होता है। यदि इससे पहले ही मूक बधिर बच्चों को उचित उपचार मिल जाए तो इनके लिए सामान्य जीवन जीना संभव हो सकता है। संवाद क्षमता व भाषा कौशल बेहतर विकसित हो सकती है। यही कारण है कि सार्वभौमिक नवजात शिशु श्रवण जांच कार्यक्रम वर्तमान में कई देशों में संचालित है। परिणामस्वरूप वहां लगभग 98 प्रतिशत शिशुओं की सुनने की क्षमता की जांच 1 महीने की उम्र से पहले ही हो जाती है।
अनुशंसित प्रोटोकॉल के अनुसार सभी नवजात शिशुओं की एक माह की आयु से पहले जांच, तीन महीने की उम्र से पहले निदान की पुष्टि और छह महीने की आयु तक उपचार शुरू हो जाना चाहिए। इस प्रोटोकॉल को 1-3-6 बेंचमार्क के नाम से भी जाना जाता है। नवजात शिशु की सुनने की क्षमता को जांचने के दो मुख्य तरीके हैं ओटो-अकॉस्टिक एमिशन और ऑटोमेटेड ऑडिटरी ब्रेनस्टेम रिस्पॉन्स (एबीआर)। जरूरी होने पर अल्पआयु यहां तक की 2-3 महीने की उम्र के बच्चों में भी श्रवण यंत्रों का उपयोग किया जा सकता है। इनसे लाभ नहीं मिलने पर कोक्लियर इम्प्लांट प्रोसीजर किया जा सकता है, जिसके लिए आदर्श आयु 1 वर्ष से कम है। भारत में राष्ट्रीय बधिरता और संचार संबंधी विकार निवारण कार्यक्रम व राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम का उद्देश्य श्रवण दोष और बहरेपन के बोझ को कम करना है, लेकिन इसमें नवजात शिशुओं के लिए श्रवण जांच अनिवार्य रूप से शामिल नहीं है।
जागरूकता की कमी, सुनने की मशीन की अस्वीकार्यता वाली मानसिकता के साथ भारत में एक बड़ी चिंता यह भी है कि स्क्रीनिंग प्रोग्राम करने के लिए देश में पर्याप्त ऑडियोलॉजिस्ट नहीं हैं, जो ये जांच करते हैं। उपचार के बिना, सुनने की क्षमता में कमी बच्चे के लिए विकासात्मक, भावनात्मक, शैक्षणिक उपलब्धि और सामाजिक चुनौतियों का कारण बन सकती है इसलिए जन्म के बाद ही हर बच्चे की सुनाई क्षमता की स्क्रीनिंग जांच अनिवार्य रूप से लागू होनी चाहिए।
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