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लखनऊ

ऐसी भी क्या मजबूरी कि इस गाव में भाई लगाता है अपनी ही बहन की बोली

पूर्व वेश्या चंद्रलेखा से जब पत्रिका ने बात-चीत की तो उन्होने बताया कि

लखनऊJul 24, 2016 / 02:49 pm

Prashant Mishra

लखनऊ. आज आप को लखनऊ से 70 किलोमीटर हरदोई रोड स्थित एक ऐसे गांव की कहानी बताने जा रहे हैं, जहां पिछले 400 साल से सेक्स का ऐसा खेल हो रहा है कि बाप अपनी बेटी को बेचने के लिए बोली लगता है तो भाई अपनी बहन के शरीर का मोलभाव करता है। जिस गांव की बात कर रहे हैं, उस गांव का नाम है नटपुरवा। यहां की आबादी लगभग 5 हजार है। यहां पर रहने वाली लगभग हर स्त्री जिस्म बेचने का धन्धा करती है। इनके शरीर की बोलियां इन्हीं के परिवार के लोग जैसे भाई, बाप, चाचा व सगे-संबंधी लगाते हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों में यहां के कुछ लोगों व एनजीओ की सहायता से काफी बदलाव लाया जा चुका है।

राजधानी लखनऊ के पास की है ये कहानी

ऐसा नहीं है कि ये गांव कही आउटर में हो। लोग इसके बारे में जानते न हो। इस गांव से ही लगे हुए तमाम गांव है, जहां के लोग सामान्य लोगों की तरह खेती किसानी या अन्य रोजगारों से अपनी जीविका निर्वाह करते हैं। इन आसपास गांव के लोग खुलेआम इस नटपुरवा गांव में जाना भी नहीं पसंद करते हैं और न ही इस गांव के लोगों से बातचीत करना। यहां पर लोग इनका अपने गांव में आना भी पसंद नहीं करते हैं।

पुश्तैनी है इनका ये काम

गांव में इस धंधे के कारण की जानकारी की तो पता चला कि ये इन लोगों का पुश्तैनी धन्धा है, जो लगातार चलता चला आ रहा है। अब तो इन लोगों को इस धन्धे की आदत हो गई है। यहां के पुरूष अपने परिवार की महिलाओं से धंधा करा कर अपनी जीविका चलाते हैं, जो शायद उनके लिए सबसे आसान साधन है।

इस गांव के आस-पास के गांव के लोगों को इस गांव से जैसे घृणा सी है, लेकिन जब आप इन से इस गांव का रास्ता पूछे, तो वे रास्ता भले ही न बताएं, लेकिन मंद सी मुस्कान जरूर छोड़ जाते हैं। पेशे से समाज सेवा का काम करने वाले अभय सिंह ने बताया कि वे कई बार इस समाज की मानसिक्ता समझने के प्रयास से नटपुरवा गया व वहां का दृश्य देखा। मैं जहां तक समझ पाया हूं, ये वहां का कल्चर बन गया, जो एकदम से खत्म नहीं किया जा सकता।

इस गांव में सुधार लाने के लिए बने सामाजिक संगठन आशा परिवार से एक भूतपूर्व वेष्या चंद्रलेखा भी जुड़ी हैं। वे भी गांव में बदलाव चाहती थीं। इस गांव में बच्चों के पढ़ने के लिए प्राथमिक स्कूल भी है, जो चंद्रलेखा की ही देन है। चंद्रलेखा से जब पत्रिका ने बात-चीत की तो उन्होंने बताया कि गावं में कुछ सुधार तो हुआ है, लकिन भूलभूत सुविधाओं के अभाव में लोग ये काम करने को मजबूर हैं। इन्होंने काफी समय पहले गांव में प्राथमिक विद्यालय की मांग की थी जिसके बाद तत्कालिक जिलाधिकारी ने उन्हें मिलने के लिए बुलाया। जब जिलाधिकारी ने उनसे पूछा कि वे अपने गांव के लिए क्या चाहती हैं तो उन्होंने एक प्राथमिक विद्यालय की मांग की। इस तरह से गांव में एक प्राथमिक विद्यालय बन गया। यह एक बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी।

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