मतलब की बात यह है कि उपलब्ध तमाम विकल्पों में लोकतंत्र ही सर्वश्रेष्ठ विकल्प है और यह अवसर है सभी मतदाताओं के लिए सही जन प्रतिनिधि के चुनाव का । अन्यथा का पछताने अवसर बीते ? बाद में बद्दुआ मत देना और कोसना भी मत फिर । धक्के भी मत खाना नगरी नगरी , द्वारे द्वारे । पांच साल बाद ही यही पंछी फिर दिखेगा इतना विनम्र और इतना कातर , सज्जनता की मूर्ति बन के । चुनाव नहीं है यह आपकी परिपक्वता के निर्णायक क्षण हैं।
रघुवीर सहाय की कविता की पंक्तियां रह रह कर कौंधती हैं –
निर्धन जनता का शोषण है, कह कर आप हंसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है, कह कर आप हंसे
सब के सब हैं भ्रष्टाचारी, कह कर आप हंसे
चारों ओर बड़ी लाचारी, कह कर आप हंसे
कितने आप सुरक्षित होंगे, मैं सोचने लगा
सहसा मुझे अकेला पाकर फिर से आप हंसे
हंसने की यह प्रक्रिया किस पर है यह शोध का विषय है । यह हंसी भोली भाली जनता पर है या अपनी चतुराई पर ? यह हंसी शक्ति और अहंकार की अट्टहासी हंसी है या तुम्हारी लाचारी पर ? बहरहाल जो भी हो तक कोशिश लगातार रहनी चाहिए कि जनता के चेहरे पर यह हंसी बचे पूरे पांच साल दिखती रहे , उसकी उम्मीदों का फूल खिलखिलाता रहे । उसके सामर्थ्य की सुगंध देश के गुलशन को महकाती रहे।
हर चुनाव निम्न से निम्नतम होता जाता है। समय बदल चुका है जनता को तड़का चाहिये, ग्लैमर चाहिये। पार्टियों को गुलदस्ते चाहिये, कठपुतलियां चाहिये जो उनके इशारे पर नाचें , उतना ही मुस्कुरायें जितना आलाकमान कहे। आंतरिक लोकतंत्र की हालत सभी पार्टियों में ख़स्ता है। आवाज़ उठाने वाले को कौन सुनना चाहता है? आप भी तुरंत उस कलपुर्ज़े और कुर्सी -पलंग को ठीक करवाते हैं जो चूं-चूं करता है। फिर जो चूं चपड़ भी करता हो उसे कौन बर्दाश्त करेगा भला ? मैं सोचता हूं ये उदाहरण पर्याप्त है आपको समझाने को कि लोकतंत्र में हमारा कितना सघन विश्वास बचा है। वस्तुतः हम आज भी राजे रजवाड़ों को देखकर मोहित होते हैं, चमत्कार देखकर सम्मोहित।