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जबलपुर

इस अमर योद्धा से जुड़ी है कजलियां पर्व की अनूठी परम्परा, देवी से मिला है वरदान

राखी के दूसरे दिन मनाया जाएगा कजलियों को त्योहार, लोग एक-दूसरे को हरे तृण भेंट करके करेंगे सुख-सृद्धि की कामना

जबलपुरAug 07, 2017 / 06:26 pm

Premshankar Tiwari

जबलपुर। रक्षाबंधन के दूसरे दिन यानी भाद्र प्रतिपदा को कजलियां पर्व धूमधाम से मनाया जाएगा। महाकोशल, विंध्य और बुंदेलखंड का यह पारम्परिक त्योहार प्रकृति के स्वागत और उसकी उपासना से जुड़ा है। माना जाता है कि मैहर में विराजित मां शारदा देवी के वरदान से अमर हुए आल्हा-ऊदल की बहन से भी इस पर्व का गहरा संबंध है। आल्हा की मुंह बोली बहन चंदा के सुरक्षित बचने पर लोगों ने एक-दूसरे को हरित तृण देकर खुशियां मनायी थीं। हालांक यह पर्व भारत की कृषि आधारित परंपरा से जुड़ा है। इसमें बारिश के बाद खेतों में लहलहाती खरीफ की फसल से आनंदित किसान एक-दूसरे को हरित तृण यानी कजलियां भेंट करके सुख और सौभाग्य की कामना करते हैं। एक-दूसरे का सुख-दुख बांटकर जीवन की खुशहाली की कामना करते हैं।


ये है खास आधार
सिहोरा के समीप ग्राम बरगवां निवासी पं. स्व. एचपी तिवारी ने कजलियां पर्व का जिक्र अपनी रचनाओं में किया है। उनके अनुसार यह आनंद का पर्व है। आषाढ़ के महीने में किसान खेतों में धान व खरीफ की अन्य फसलें बोता है। सावन के अंत तक यह फसल खेतों में लहलहा उठती है। उसे देखकर खुश हुआ किसान एक-दूसरे को कजलियां भेंट करके सुख-और सौभाग्य की कामना करता है।

 

ऐसे बोयी जाती हैं कजलियां
कजलियां पर्व को लेकर लोग नागपंचमी या फिर किसी अन्य निर्धारित तिथि पर अमने घर में बांस की टोकनियों या मटकों के कल्लों में मिट्टी भरकर उसमें गेहूं के दाने डालते हैं। इनकी रोज सिंचाई व देख रेख की जाती है। रक्षा बंधन तक ये दाने लहलहाते पौधों में तब्दील हो जाते हैं। इन हरित तृणों को कजलियां कहा जाता है। रक्षाबंधन के दूसरे दिन महिलाएं इन कजलियों को सिर पर रखकर जलाशयों में पहुंचती हैं। मंगलगीतों के साथ कजलियों को तोड़ा जाता है। कुछ कजलियां विसर्जित कर दी जाती हैं। कुछ हिस्सा वापस घरों में लाया जाता है।


देवताओं को अर्पण
तालाब से कजलियां लेकर महिलाएं मंगलगीत गाते हुए वापस घर आती हैं। यही कजलियां सबसे पहले कुलदेवता व अन्य देवताओं को अर्पित करके सुख-सौभाग्य की कामना की जाती है। कजलियों पर जबलपुर में नर्मदा के ग्वारीघाट, हनुमानताल, अधारताल, गंगा सागर, देवताल **** अन्य तालाब के आसपास उत्सव और मेले जैसा माहौल रहता है।


दुख बांटने का पर्व
कजलियों के दिन लोग अपने परिचित व रिश्तेदारों के घर जाते हैं। उन्हें कजलियां भेंट करके उनका अभिवादन करते हैं। विशेषकर जिसके घर या परिवार में किसी व्यक्ति का निधन हो जाता है। उसके घर में लोग अवश्य जाते हैं। दुखी परिजनों को कजलियोंं के रूप में हरित तृण भेंट करके जीवन की नई शुरूआत करने का संदेश दिया जाता है। मंगलवार को हर तरफ इस पर्व की धूम रहेगी।


ये भी है कहानी
महोबा के सिंह सपूतों आल्हा-ऊदल-मलखान की वीरता आज भी उनके वीर रस से परिपूर्ण गाथाएँ बुंदेलखंड की धरती पर बड़े चाव से सुने जाते हैं। लोग आल्हा-ऊदल के काव्य का गान करके उनकी वीरता से आने वाली पीढ़ी को अवगत कराते हैं। आल्हा काव्य के जानकार पं. जनार्दन शुक्ल के अनुसार दिल्ली का एक राजा, महोबा के राजा परमाल की बेटी चंद्रबली यानी चंदा के अपहरण की धमकी देता है। बाद में चंदा के लिए वह महोबा पर चढ़ाई कर देता है। आल्हा-ऊदल परमाल की मदद के लिए आगे आते हैं और अपनी वीरता का जौहर दिखाते हुए उस राजा और उसकी सेना को खदेड़ देते हैं। लोग एक-दूसरे को हरित तृण भेंट करके दुश्मन पर विजय और चंदा के सुरक्षित बचने की खुशी मनाते हैं। यह उत्सव कई दिन तक चलता है। महोबा में आज भी इसकी धूम रहेगी।

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