दो तरह से होती है शिशु की जेनेटिक स्क्रीनिंग
1. जेनेटिक स्टडी- इसमें बच्चे के क्रोमोसोम्स यानी गुणसूत्र संबंधी विकारों जैसे गुणसूत्रों का कम या ज्यादा होने व इनसे होने वाली बीमारियों का पता लगाया जाता है। यदि शिशु को डाउन सिंड्रोम का खतरा है तो इस बारे में माता-पिता की काउंसलिंग जन्म से पहले ही शुरू की जा सकती है। इससे शिशु के अभिभावक व परिजन उसकी परवरिश को लेकर अपने को तैयार कर सकते हैं। जेनेटिक स्टडी गर्भावस्था के 20वें सप्ताह में की जाती है। इसमें गर्भस्थ शिशु का ब्लड सैंपल लेकर उसकी जीन स्टडी की जाती है। इस जांच से पता चल जाता है कि आने वाला शिशु कितनी स्वस्थ होगा या उसे किस-किस तरह की बीमारियां हो सकती हैं।
2. मेटाबॉलिक स्क्रीनिंग- यह जन्म के बाद करते हैं। इसमें उन एंजाइम्स की जांच की जाती है जो शिशु की मेटाबॉलिक प्रणाली को गड़बड़ा सकते हैं। असामान्य मेटाबॉलाइड्स जमा होने से बच्चे का मानसिक-शारीरिक विकास पर असर पड़ सकता है। मेटाबॉलिज्म का मतलब उस प्रक्रिया से है जो हमारे भोजन को पचाकर एनर्जी में बदलती है।
(एक्सपर्ट: डॉ. बी.एस. शर्मा, वरिष्ठ शिशु रोग विशेषज्ञ)